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________________ प्रशमरति १३ अर्थ : इस भांति ये क्रोध, मान, माया और लोभ जीवात्माओं के दुःख के कारणरूप होने से नरक वगैरह संसार के भयंकर मार्ग का निर्माण करने वाले हैं ||३०|| ममकाराहङ्कारावेषां मूलं पदद्वयं भवति । रागद्वेषावित्यपि तस्यैवान्यस्तु पर्यायः ॥ ३१ ॥ : अर्थ : क्रोधादि कषायों की जड़ में दो बातें हैं ममकार [ममत्व] और अहंकार [गर्व] उसके ही [ममकार और अहंकार के] राग द्वेष आदि अन्य पर्याय हैं ||३१|| मायालोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्टः ॥३२॥ अर्थ : माया और लोभ का युगल [Couple] राग है एवं क्रोध-मान का युगल द्वेष है, ऐसा संक्षेप में-थोडे में कहा जा सकता है ||३२|| मिथ्यादृष्ट्यविरमणप्रमादयोगास्तयोर्बलं दृष्टम् । तदुपगृहीतावष्टविधकर्मबन्धस्य हेतू तौ ॥३३॥ अर्थ : मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और मन-वचनकाया के योग, ये चार उन राग द्वेष के उपकारी हैं। वे मिथ्यात्वादि से उपगृहीत राग और द्वेष, आठ प्रकार के कर्मबन्धन में निमित्त- सहायक बनते हैं ॥३३॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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