SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ प्रशमरति श्रुतशीलविनयसन्दूषणस्य धर्मार्थकामविघ्नस्य । मानस्य कोऽवकाशं मुहूर्तमपि पण्डितो दद्यात् ॥२७॥ अर्थ : श्रुत, शील और विनय को दूषित करने वाले एवं धर्म और अर्थ काम-पुरुषार्थ में विघ्नकारक ऐसे मान को कौन विद्वान-पुरुष एक पल के लिए भी अपनी आत्मा में स्थान देगा? ॥२७॥ मायाशीलः पुरुषो यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोषहतः ॥२८॥ अर्थ : मायावी मनुष्य, चाहे मायाजनित कोई भी अपराध या गुनाह न करता हो फिर भी स्वयं के माया-दोष से उपहत बना वह साँप की भाँति अविश्वसनीय बनता है ॥२८॥ सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य । लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात् ? ॥२९॥ अर्थ : सारे अपायों का आश्रयस्थान, सारे दुःखों काव्यसनों का मुख्य मार्ग सा जो लोभ, उसका शिकार बना हुआ कौन जीव [लोभपरिणामयुक्त] सुख प्राप्त करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२९॥ एवं क्रोधो मानो माया लोभश्च दुःखहेतुत्वात् । सत्त्वानां भवसंसारदुर्गमार्गप्रणेतारः ॥३०॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy