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________________ अर्थ :- कर्मक्षय से उत्पन्न अनेक गुणों के समूह वाले, निर्मल आत्म-स्वभाव द्वारा परमात्मा की स्तवना में तल्लीन परिणति के द्वारा बारम्बार प्रभु का गुणगान करके, आठ वर्ण के उच्चार स्थानों को हम पवित्र करते हैं तथा जगत् में भगवन्त के स्तोत्र वाणी के रस को जानने वाली जीभ को मैं रसज्ञा (जीभ) कहता हूँ, शेष लोककथा के कार्य में वाचाल बनी जीभ को मैं जड़ ही समझता हूँ ॥१८८।। निर्ग्रन्थास्तेऽपि धन्या गिरिगहनगुहागह्वरान्तर्निविष्टाधर्मध्यानावधानाः समरससुहिताः पक्षमासोपवासाः । येऽन्येऽपि ज्ञानवन्तः श्रुतविततधियो दत्तधर्मोपदेशाः, शान्ता दान्ता जिताक्षा जगति जिनपतेः शासनं भासयन्ति।१८९। स्रग्धरावृत्तम् अर्थ :- पर्वत, जंगल, गुफा तथा निकुंज में रहते हुए धर्मध्यान में दत्तचित्त रहने वाले, शमरस से सन्तुष्ट, पक्ष और मास (क्षमण) जैसे विशिष्ट तप करने वाले (महामुनियों को) तथा श्रुतज्ञान से विशाल बुद्धि वाले, उपदेशक, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय बनकर जो प्रभु-शासन की प्रभावना करते हैं, उन निर्ग्रन्थ मुनियों को भी धन्य है ॥१८९॥ दानं शीलं तपो ये विदधति गहिणो भावनां भावयन्ति, धर्मं धन्याश्चतुर्धा श्रुतसमुपचितश्रद्धयाऽऽराधयन्ति । शांत-सुधारस ७४
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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