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येन विराजितमिदमति पुण्यं, तच्चिन्तय चेतन नैपुण्यम् । विशदागममधिगम्य निपानं,
विरचय शान्तसुधारसपानम् ॥ भावय रे० ॥ ८३ ॥ अर्थ :- हे चेतन ! तू ऐसी निपुणता का चिन्तन कर, जिससे इसे महान् पुण्य के रूप में बिराजमान किया जा सके । विस्तृत आगम रूप जलाशय को जानकर शान्त सुधारस का पान कर ॥८३॥
शांत-सुधारस
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