SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादश-नव रन्ध्राणि निकामं, गलदशुचीनि न यान्ति विरामम् । यत्र वपुषि तत्कलयसि पूतं, __मन्ये तव नूतनमाकूतम् ॥ भावय रे० ॥ ८० ॥ अर्थ :- स्त्री-शरीर के बारह और पुरुष-शरीर के नौ द्वारों में से सतत् अपवित्रता बह रही है, जो कभी रुकती नहीं है, ऐसे शरीर में तू पवित्रता की कल्पना करता है, यह तेरा कैसा नवीन तर्क है ? ॥८०॥ अशितमुपस्कर-संस्कृतमन्नं, जगति जुगुप्सां जनयति हन्नम् । पुंसवनं धैनवमपि लीढं, भवति विगर्हितमति जनमीढम् ॥ भावय रे ॥८१॥ अर्थ :- देह मसाले आदि से संस्कारित अन्न को खाकर, दुनिया में केवल घृणा पैदा करता है । गाय का मधुर दूध भी मूत्र रूप में बदलकर निन्दा का पात्र बनता है ॥८१॥ केवलमलमय-पुद्गलनिचये, अशुचीकृत-शुचि-भोजनसिचये। वपुषि विचिन्तय परमिह सारं, शिवसाधन-सामर्थ्यमुदारम् ॥ भावय रे ॥८२ ॥ अर्थ :- यह तो केवल मल के परमाणुओं का ढेर है, पवित्र भोजन और वस्त्रों को भी अपवित्र करने वाला है, फिर भी इसमें मोक्ष-प्राप्ति का सामर्थ्य है, यही इसका सार है ॥८२।। शांत-सुधारस
SR No.034149
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy