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________________ रहित विहार किया था । इसी दृष्टांत से दूसरों को भी तप में उद्यम करना चाहिए || ३ || जड़ ता तिलोगनाहो, विसहइ बहुआई असरिसजणस्स । इअ जीयंतकराई, एस खमा सव्वसाहूणं ॥४॥ शब्दार्थ : यदि तीन लोक के नाथ श्री तीर्थंकर ने नीच लोगों के द्वारा दिये गये प्राणान्त अनेक प्रकार के कष्ट सहन किये हैं, तो सर्व साधुओं को ऐसी क्षमा ( तितिक्षा) धारण करनी चाहिए ||४| न चइज्जइ चालेडं, महइ - महावद्धमाणजिणचंदो । उवसग्गसहस्सेहिं वि, मेरु जहा वायगुंजाहिं ॥५॥ शब्दार्थ : जैसे मेरु पर्वत को प्रबल झंझावात चलायमान नहीं कर सकता; वैसे ही, मोक्षमति वाले महान् जिनचन्द्र श्री वर्धमानस्वामी को हजारों उपसर्ग चलायमान नहीं कर सके ॥ ५ ॥ भद्दो विणीयविणओ, पढम गणहरो समत्त - सुअनाणी । जाणंतोवि तमच्छं, विम्हिअहियओ सुणइ सव्वं ॥ ६ ॥ शब्दार्थ : भद्र और विशेष विनय वाले प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी समस्त श्रुतज्ञानी थे, उसके अर्थ को जानते थे, फिर भी जब प्रभु कहते थे, तब वे उन सब अर्थों (बातों) को विस्मित-हृदयवाले होकर सुनते थे ! ||६|| जं आणवेइ राया, पगईओ तं सिरेण इच्छंति । इअ गुरुजणमुहभणिअं, कयंजलिउडेहिं सोयव्वं ॥७॥ उपदेशमाला ४
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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