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________________ कारुण्ण-रुण्ण-सिंगारभाव - भय-जीवियंतकरणेहिं । साहू अवि य मरंति, न य नियनियमं विराहिंति ॥१०७॥ शब्दार्थ : करुणाभाव, रुदन, शृंगारभाव, राजा आदि किसी की ओर से भय या जीवन का अंत तक करने वाले अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों (कष्टों) के आ पड़ने पर भी साधु अपने नियमों की कभी विराधना (भंग) नहीं करते ॥१०७॥ अप्पहियमायरंतो अणुमोअंतो य सुग्गइं लहइ । रहकार- दाणअणुमोयगो, मिगो जह य बलदेवो ॥ १०८ ॥ , शब्दार्थ : तप, संयम आदि आत्मकल्याण का आचरण करने वाला तथा दानादि धर्म की अनुमोदना करने वाला जीव भी सद्गति प्राप्त करता है । जैसे मुनि को दान देने वाला रथकार, उसकी अनुमोदना करने वाला मृग और तपसंयम का आचरण करने वाला मुनि बलदेव तीनों ने सुगति प्राप्त की ॥१०८॥ जं तं कयं पुरा पूरणेण, अइदुक्करं चिरं कालं । जड़ तं दयावरो इह, करिंतु तो सफल हुँतं ॥१०९॥ शब्दार्थ : पूरण नाम के तापस ने जिसने पहले अतिदुष्कर तप चिरकाल तक किया था, वही तप यदि दयापरायण होकर किया होता तो सफल हो जाता ॥ १०९ ॥ कारण नीयावासे, सुट्ठयरं उज्जमेण जइयव्वं । जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तया आसि ॥ ११० ॥ उपदेशमाला ३५
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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