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________________ धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं, कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं, सीसं चोएइ आयरिओ ॥१०४॥ शब्दार्थ : आचार्य भगवान् अतिसुंदर (निर्दोष) धर्ममय कारणों, (हेतुओं) युक्तियों और दृष्टांतों से शिष्य के मन को आनंदित करते हुए उसे प्रेरणा देते हैं और संयम (धर्म) मार्ग में स्थिर करते हैं ॥१०४॥ जीअं काऊण पणं, तुरमिणिदत्तस्स कालिअज्जेण । अवि य सरीरं चत्तं, न य भणियमहम्मसंजुत्तं ॥१०५॥ __शब्दार्थ : तुरमणि नगर में कालिकाचार्य से दत्त राजा ने पूछा तो उन्होंने अपने शरीर के त्याग की परवाह न करके भी असत्य अधर्मयुक्त वचन नहीं कहा ॥१०५॥ फुडपागडमकहतो, जहट्ठिअं बोहिलाभमुवहणइ । जह भगवओ विसालो, जर-मरण-महोदही आसि ॥१०६॥ शब्दार्थ : स्पष्टरूप से यथार्थ सत्य नहीं कहने पर साधक आगामी जन्म में बोधिलाभ (धर्मप्राप्ति) का नाश कर देता है। जैसे वैशालिक भगवान् महावीर ने मरीचि के भव में यथास्थित सत्य नहीं कहा, जिसके कारण उनके लिए जराजन्मों का महासमुद्र तैयार हो गया । यानी कोटाकोटी सागरोपमकाल तक संसार (जन्म मरण रूप) की वृद्धि हुई ॥१०६॥ श्री महावीर स्वामी के सम्बन्ध में पूर्वजन्मों की वह घटना दे रहे हैं - उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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