SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका त्याग के उपरान्त भी यह प्रयोग पुनः चालू कर दिया गया। इस सम्बन्ध में श्री बलवन्तसिंहजी ने बापू से एक पत्र में प्रकाश चाहा। बापू ने उत्तर देते हुए लिखा है : - "तुम्हारा पत्र बहुत ही अच्छा है, निर्मल है । और तुम्हारी सब शंका उचित है। भय भी स्थान पर है। भौर सावधानी स्वागत योग्य है। "१९३५ की प्रतिज्ञा लिखी गई है अंग्रेजी में। गुजराती अथवा उसका हिन्दी अनुवाद मैंने पढ़ा नहीं था। मूल अंग्रेजी का अर्थ है'बहनों के कन्धे पर हाथ रखने का मुहावरा मैंने रखा है, उसका मैं त्याग करता हूँ। "लेकिन लोक-संग्रह की दृष्टि से उसका त्याग किया। दिल में कभी यह अर्थ नहीं था कि मैं कभी किसी लड़की के कन्धे पर हाथ नहीं रखंगा। मुझे खयाल नहीं है कि सेगांव में कन्धे पर हाथ रखने का मैंने किस लड़की से शुरू किया। लेकिन मुझे इतना खयाल है कि मुझ को १९३५ की प्रतिज्ञा का पूरा स्मरण था और वह स्मरण होते हुए मैंने उस लड़की के कन्धे पर हाथ रखा। हो सकता है उस लड़की के प्राग्रह को मैं रोक न सका, अथवा मुझे उसके कन्धे के टेक की दरकार थी। ऐसा तो मैं कैसे कह सकता हूँ कि दुर्बलता के कारण ही मैंने सहारा लिया। और अगर ऐसा भी था तो मैं प्रतिज्ञा के कायम रखने के लिए किसी भाई का सहारा ले सकता था। लेकिन मेरी प्रतिज्ञा का ऐसा व्यापक अर्थ था नहीं, मैंने कभी किया नहीं। "अब रही अमल की बात । मैंने मेरे निर्णय का अमल शुरू किया, उसके बाद ही भाष्य चला। प्रथम भाष्य में जो अमल तीन चार दिन के बाद करने की बात थी, उसको मैंने दूसरे ही दिन शुरू कर दिया। जहां तक मेरी निर्विकारता अधरी रहेगी, वहाँ तक भाष्य होना ही है। शायद वह आवश्यक भी है। सम्पूर्ण ज्ञान मौन से ज्यादा प्रकट होता है, क्योंकि भाषा कभी पूर्ण विचार को प्रकट नहीं कर सकती। अज्ञान विचार की निरंकुशता का सूचक है, इसलिए भाषारूपी वाहन चाहिए । इस कारण ऐसा अवश्य समझो कि जहां तक मुझे कुछ भी समझाने की आवश्यकता रहती है वहाँ तक मेरे में अपूर्णता भरी है अथवा विकार भी है। मेरा दावा छोटा है और हमेशा छोटा ही रहा है । विकारों पर पूर्ण अंकुश पाने का अर्थात् हर स्थिति में निर्विकार होने का मैं सतत प्रयत्न करता हूं, काफी जाग्रत रहता हूँ। परिणाम ईश्वर के हाथ में है । मैं निश्चिन्त रहता हूँ (११-६-३८)।'" hendi m a (२) स्त्रियों के साथ खला जीवन : 5000 महात्मा गांवी स्त्रियों के साथ आजादी से मिलते-जुलते थे। उन्होंने लिखा है : "दक्षिण अफ्रिका में भारतियों के बीच मुझे जो काम करना पड़ा, उसमें स्त्रियों के साथ आजादी के साथ हिलता-मिलता था। ट्रांसवाल और मेटाल में शायद ही कोई भारतीय स्त्री हो जिसे मैं न जानता होऊ।" H EROINER A L 1 ऐसे घले-मिले जीवन में भी उन्होंने ब्रह्मचर्य की किस तरह रक्षा की, इसकी झांकी उन्होंने इस रूप में दी: : ...."दुनिया में आजादी से सबके साथ हिलने-मिलने पर ब्रह्मचर्य का पालन यद्यपि कठिन है, लेकिन अगर संसार से नाता तोड़ लेने पर ही यह प्राप्त हो सकता है तो इसका कोई विशेष मूल्य ही नहीं है। जैसे भी हो मैंने तो तीस वर्ष से भी अधिक समय से प्रवृत्तियों के बीच रहते हुए, ब्रह्मचर्य का खासी सफलता के साथ पालन किया है।" अपनी दृष्टि के विषय में उन्होंने लिखा है : "मेरे लिए तो इतनी सारी स्त्रियो बहनें और बेटियां ही थीं।..."धार्मिक साहित्य में स्त्रियों को जो सारी बुराई और प्रलोभन का द्वार बताया गया है, उसे मैं इतना भी नहीं मानता।" आगे जाकर उन्होंने लिखा है......"स्त्रियों को मैंने कभी इस तरह नहीं देखा कि कामवासना की तृप्ति के लिए ही वे बनाई गई हैं, बल्कि हमेशा उसी श्रद्धा के साथ देखा है जो कि मैं अपनी माता के प्रति रखता हूं।"..... 'सत्याग्रह पाश्रम के इतिहास' से पता चलता है कि पाश्रम में ब्रह्मचर्य की व्याख्या पूर्ण रखी गयी थी। पाश्रम में स्त्री-पुरुष दोनों रहते थे। और उन्हें एक दूसरे के साथ मिलने की काफी प्राजादी थी। आदर्श यह था कि जितनी स्वतंत्रता मां-बेटे या बहिन-भाई भोगते हैं, वही प्राश्रमवासियों को मिल सके। इस प्रयोग में जो जोखिम थी, उससे महात्मा गांधी परिचित थे और उन्होंने लिखा है :१-बापू की छाया में पृ० २४६-५० २-हरिजन सेवक, २३-७-३८ : ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ०१०४ ३-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४२ . Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy