SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका जी Amirk१९-बांडों के पीछे धिongी ? " ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जो दस उपाय बतलाये गये हैं, उनके पीछे अनेक दृष्टियाँ हैं। उनका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है। .......(१) स्त्रियों के साथ एक घर में वास; मनोहारी स्त्री-कथा ; स्त्री-संस्तव (स्त्री-संग और परिचय), स्त्रियों की इन्द्रियों पर दृष्टि स्त्रियों के कूजन, रूदन, हास्यादि के शब्दों का सुनना; रसपूर्ण खान-पान ; अति प्राहार: गात्र-विभूषा पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरणः और काम भोगों का सेवन-ये सब आत्मगवेपी ब्रह्मचारी के लिए तालपुट विष की तरह है। ब्रह्मचर्य की इन अगप्तियों से शान्ति का भेद, शान्ति का भङ्ग होता है। (२)जो स्त्री-संसक्त मकान में वास न करना आदि उपर्युक्त समाधि-स्थानों के प्रति असावधान रहता है, उसे धीरे-धीरे अपने व्रत में शंका होनी उत्पन्न होती है, फिर विषय-भोगों की प्राकक्षिा-कामना. उत्पन्न होती है और फिर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है या नहीं ऐसी विचिकित्सा-विकल्प उत्पन्न होता है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य का नाश हो जाता है, उसके उन्माद और दूसरे बड़े रोग हो जाते हैं और अन्त में चित्त की समाधि भङ्ग होने से वह केवली-भाषित धर्म से भ्रष्ट-पतित हो जाता है। (३) स्त्री-संसक्त मकान में वास न करना आदि उपर्युक्त दसविध उपायों के पालन करने से संयम और संवर में दृढ़ता होती है। चित्त की चंचलता दूर होकर उसमें स्थिरता पाती है। मन, वचन, काय तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होकर अप्रमत्त भाव से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती S (४) स्त्रियों के साथ वास न करना; उनकी संगति, स्पर्श, सह-पासनादि न करना प्रादि सभी नियम ब्रह्मचारी के उत्तम शिष्टाचार हैं। ये नियम उसकी शोभा को बढ़ाते हैं। इन नियमों का प्रभाव शिष्ट-व्यवहार की कमी का सूचक है। (५) ये नियम ब्रह्मचारी के प्रति किसी प्रकार की शङ्का अथवा लोक-निन्दा को उत्पन्न नहीं होने देते। उसके विश्वास को नहीं उठने देते। (६) ब्रह्मचारी के पास आनेवाली स्त्रियों के प्रति शङ्का उत्पन्न नहीं होने देते। उनकी आबरू की रक्षा करते हैं। इस तरह वातावरण स्वच्छ एवं शुद्ध रहता है। :37(७) ये भ्रष्टाचार को सहज ही पनपने नहीं देते। और न अशुद्ध लोक-व्यवहार का आदर्श उपस्थित होने देते हैं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन की एक घटना का वर्णन इस प्रकार किया है-"मैं सावधान अधिक था। पूजनीया माताजी की दिलाई हुई प्रतिज्ञा रूपी ढाल मेरे पास थी। विलायत की बात है । मैं जवान था। दो मित्र एक घर में रहते थे। थोड़े ही दिन के लिए वे एक गांव में गये। मकान मालकिन आधी वेश्या थी। उसके साथ हम दोनों ताश खेलने लगे। विलायत में मां बेटा भी निर्दोष भाव से ताश खेल सकते हैं, खेलते ही हैं। मुझे तो पता भी नहीं था कि मकान मालकिन अपना शरीर बेचकर अपनी जीविका चलाती है। ज्यों-ज्यों खेल जमने लगा त्यों-त्यों रंग भी बदलने लगा। उस.बाई ने विषय-चेष्टा प्रारंभ कर दी।..."मित्र मर्यादा छोड़ चुके थे। मैं ललचाया। मेरा चेहरा तमतमा गया। उसमें व्यभिचार का भार भर गया। मै अधीर हो गया। मेरे मित्र ने मेरा रंग-ढंग देखा। "मित्र ने देखा कि मेरी बुद्धि बिगड़ गई है। उन्होंने देखा कि यदि इस रंगत में रात अधिक जायगी तो मैं भी उनकी तरह पतित हुये बिना न रहूँगा......राम ने उनके द्वारा मेरी सहायता की। उन्होंने प्रेम-बाण छोड़ते हुए कहा-'मौनिया ! मौनिया ! होशियार रहना !......अपनी मां के सामने की हुई, प्रतिज्ञा याद करो।"....."मैं उठ खड़ा हुआ। अपना विस्तरा संभाला । सबेरे में जगा । राम-नाम का प्रारम्भ हुआ। मन में कहने लगा, कौन बचा, किसने बचाया, धन्य प्रतिज्ञा, धन्य माता, धन्य मित्र । धन्य राम ! मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था ।......अपने जीवन का सब से भयङ्कर समय में इस प्रसंग को मानता हूँ। स्वच्छन्दता का प्रयोग करते हुए मैंने संयम सीखा । राम को भूलाते हुए मुझे राम के महात्मा गांधी टहलते समय बहिनों के कंधे का सहारा लेते । आलोचना हुई—“लोक-स्वीकृत सभ्यता के विचार को चोट पहुंचती है।" १-उत्तराध्ययन १६.११-१३ -आचाराङ्ग २.१५ चौथे महाव्रत की भावना -उत्तराध्ययन : १६.१-१० ४--वही १६.१ ५-संयम-शिक्षा पृ० २२-२५ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy