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________________ शील की नकावाड़ . .. . । उनका दूसरा सूत्र है : "दुःखमेव वा हिंसा यावत् परिग्रह में दुःख ही है। साधक सोचे! स्पर्शन-इन्द्रिय जत्य सुखरूप मालूम होने पर भी वास्तव में मैथुन राग-द्वेष रूप होने से दुःखरूप ही है। अब म व्याधि का प्रतिकार मात्र है। जिस प्रकार कोई दाद या खाज का रोगी खुजाते समय सुख का अनुभव करता है परन्तुं वह सुख नहीं सुखाभास है उसी तरह मैथुन की बात है।": : :: : उमास्वाति कहते हैं कि ऐसी भावनाएं रखने से ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य में स्थर्य को प्राप्त करता है-"इत्येवं भावयतो व्रतिनो बृते स्थैयं भवति।" महावीर कहते हैं-“काम शल्य रूप है, काम विषरूप है, काम-दृष्टि विष की तरह है । कामों की प्रार्थना करते-करते प्राणी उनको प्राप्त किए बिना ही दुर्गति को जाते हैं।" "काम-भोगक्षण मात्र ऐन्द्रिय-सुख देनेवाले हैं और बहुकाल दुःख देनेवाले । उनमें सुख तो अणु मात्र है और दुःख का ठिकाना नहीं५ ।" "काम-भोग अनर्थ की खान हैं। देवताओं से लेकर सारे लोक को जो भी कायिक या मानसिक दुःख हैं, वे कामासक्ति से उत्पन्न हैं। काम-भोगों में वीतराग पुरुष सर्व दुःखों का अन्त करता है।" "जिस तरह किम्पाक फल खाते समय रस और वर्ण में मनोरम होने पर भी पचने पर जीवन का अन्त करते हैं, उसी तरह से भोगने में मनोहर काम-भोग विपाक काल में फल देने की अवस्था में अधोगति के कारण होते हैं।" "काम-भोग संसार को बढ़ानेवाले हैं। गृद्ध पक्षी के दृष्टान्त को जान कर विवेकी पुरुष, गरुड़ के समीप सर्प की तरह काम-भोगों से सशंकित रहता हा डर-डर कर चले .... महात्मा गांधी लिखते हैं N . .: "विकार उत्पन्न न हो और इन्द्रिय न चले. इसके लिए तात्कालिक उपाय मांगना यह बंध्यापुत्र के इच्छा करने के सदृश है। यह काम बहुत धीरज से होता है। एकान्त सेवन, सत-संग-शोधन, सत्कीर्तन, सत्वाचन, निरंतर शरीरमंथन, अल्पाहार, फलाहार, अल्प निद्रा, भोगविलास-त्याग-इतना जो कर सकता है, उसे मनोराज्य हस्तामलक की तरह प्राप्त होता है । जब-जब मनोविकार हो तब-तब उपवासादिक व्रतों का पालन करना चाहिए .. . TE 2 महावीर कहते हैं - "ये काम-भोग सरलता से पिण्ड नहीं छोड़ते। अधीर पुरुषों से तो वे सुगमता से छोड़े ही नहीं जा सकते। सुव्रती साधु इन दुस्तर भोगों को उसी तरह पार कर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को." "एकान्त शय्यासन के सेवी, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय पुरुष के चित्त को विषयरूपी शत्रु पराभव नहीं कर सकता। प्रौषध से जैसे व्याधि पराजित हो जाती है, वैसे ही इन नियमों के पालने से विषय रूपी शत्रु पराजित हो जाता है.. . . ...) महात्मा गांधी लिखते हैं: ब्रह्मचारी को भोग-विलास के प्रसंग मात्र का त्याग कर देना चाहिए। उनकी ओर मन में अरुचि उत्पन्न करनी चाहिए। इसलिए कि अरुचि या विराग के बिना त्याग केवल ऊपरी त्याग होगा और इस कारण टिक न सकेगा। भोग-विलास किसे कहें, यह बताने की जरूरत नहीं। जिस-जिस चीज से विकार उत्पन्न हों; वे सभी त्याज्य हैं।" महावीर ने कहा है : "ब्रह्मचारी दुर्जय काम-भोगों का सदा परित्याग करें तथा ब्रह्मचर्य के लिए जो शंका-विघ्न के स्थान हों, उन्हें एकाग्र मन से वर्जन करे-टाले ३" CRETED १-'तत्त्वाथसूत्र ७.५ भाष्य ४. उत्तराध्ययन ६.५३ . i n a niy ६-उत्त० ३२.१६ ७-उत्त० ३२.२० ८-उत्त० १५.१७ F_बहाचर्य (श्री)000 १०-उत्त० ८.६ ११-उत्त० ३२.१२ १२--ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० १३ १३- उत्त० १६.श्लो०१४ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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