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________________ शील की नव बार नवीं बार बाल विभपा-परिवर्जन E ntiy नवीं बाड़ में शरीर-शगार का निषेध किया गया है। ब्रह्मचारी अभ्यङ्गन, मर्दन, विलेपन न करे। चटकीले-भड़कीले, खूब स्वच्छ वात को न पहने । प्राभूषण धारण न करे। दांतों को न रंगे। बेशों को न संवारे। गन्ध-माल्य को धारण न करे। अञ्जन न लगाये। जा छाता धारण न करे। पागम में विभूषा को तालपुट विष की तरह कहा है। वहाँ कहा है "बनाय-ठनाव करनेवाला ब्रह्मचारी स्त्रियों की कार का विषय हो जाता है अतः वह विभूषानुपाती न हो।" स्वामीजी ने दृष्टान्त दिया है-"जैसे रक के हाथ मे रहे हुए रल को राजकर्मचारी कार लेते हैं, वैसे ही स्त्री शौकीन ब्रह्मचारी थे. ब्रह्मचर्य-रल को छीन कर उसे खाली हाथ कर देती है।" एकबार टॉल्स्टॉय से पूछा गया-"विकार से झगड़ने का कोई उपाय बताइए।" उन्होंने कहा--"ठीक है, परिश्रम, उपवास प्रालि छोटे उपायों में सब से अधिक कारगर उपाय है दारिद्रय-निर्धनता, बाहर से भी अकिंचन दिखाई देना जिससे मनुष्य स्त्रियों के लिए आकर्षण की वस्तु न रहे'।" टॉल्स्टॉय ने जो कहा वह आगम-वाणी से शब्दशः मिलता है--'विभूसावत्तिए विभूसिय सरीरे इत्थिजणस्य अभिलसणिजे हवइ ।' * यह नियम भी स्त्री और पुरुष दोनों के लिए लाग है। टॉल्स्टॉय कहते हैं : "स्त्रियों में निर्लज्जता बढ़ती जाती है। कुलीन स्त्रियाँ नीच कुलटायों की देखादेखी नित्य नये फैशन सीखती जाती है और पुरुषों के चित में काम की आग भड़कानेवाले अपने अङ्गों का प्रर्दशन करने में जरा भी नहीं हिचकिचातीं । क्या यह पतन का सीधा मार्ग नहीं है । आगम में कहा है-"जो शौकीन स्त्री-पुरुष एक दूसरे के काम्य बनते हैं उन्हें अपने व्रत में शंका उत्पन्न होती है, फिर विषय-भोगों की आकांता-कामना उत्पन्न होती है और फिर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है या नहीं ऐसी विचिकित्सा-विकल्प उत्पन्न होता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का नाश हो जाता है। उनके उन्माद और दूसरे बड़े रोग हो जाते हैं और अन्त में चित्त-समाधि भङ्ग होने से केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट होते हैं।" or स्मतियों में कहा गया है-"ब्रह्मचारी दर्पण में मुंह न देखे, दातुन न करे, शरीर की शोभा का त्याग करे। वह सुगन्धित द्रव्य-गन्ध Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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