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________________ भूमिका के लिए खाते हैं, स्वाद के लिए कभी नहीं खाते। हम हवा स्वाद के लिए नहीं लेते, बल्कि सांस लेने के लिए लेते हैं । पानी जैसे महज प्यास बुझाने के लिए पीते हैं, वैसे ही श्रन्न केवल भूख मिटाने के लिए खाना चाहिए ।" ब्रह्मचर्य से स्वाद बहुत पनिष्ट सम्बन्ध रखनेवाला है मेरा अनुभव ऐसा है कि इस व्रत का पालन किया जा सके तो ब्रह्मचर्य श्रर्थात् जननेन्द्रिय संयम विल्कुल सहज हो जाता है। "जिस तरह दवा खाते समय वह स्वादिष्ट है या नहीं, इसका विचार नहीं करते, बल्कि शरीर को उसकी श्रावश्यकता है, यह समझ कर उसे उचित परिणाम में खाते हैं, उसी तरह अन्न के विषय में समझना चाहिए । "जो 'मनुष्य प्रत्याहारी है, जो प्राहार में कुछ विवेक या मर्यादा ही नहीं रखता, वह अपने विकारों का गुलाम है। जो स्वाद को नहीं जीत सकता, वह कभी इन्द्रियजीत नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को युक्काहारी धीर अल्पाहारी बनना चाहिए। शरीर आहार के लिए नहीं बना, श्राहार शरीर के लिए बना है २ ।" "ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेन्द्रिय 'जीभ' को वश में करना ही होगा। मैंने खुद करके देखा है कि जीभ को जीत से तो ब्रह्मचर्य का पालन बहुत मासान हो जाता है३" महावीर और स्वामीजी ने जो कहा है, दूसरे शब्दों में महात्मा गांधी ने भी वही कहा है महात्मा गांधी ने धामों में स्वाद को जोड़ा। जैन धर्म में उस पर पहले से ही अत्यधिक बल दिया हुआ है। महात्मा गांधी लिखते हैं छः मेरे भोजन विषयक प्रयोग ब्रह्मचर्य की दृष्टि से भी होने लगे। मैने प्रयोग करके देख लिया कि हमारी खुराक थोड़ी, सादी और बिना मिर्च मसाले की होनी चाहिए और प्राकृतिक अवस्था में खाई जानी चाहिए। अपने विषय में तो मैंने वर्ष तक प्रयोग कर देख लिया है कि ब्रह्मचर्य का आहार वनपक्व फल हैं। फलाहार के समय ब्रह्मचर्य सहज था। दुग्धाहार से वह कष्ट-साध्य हो गया । '''''दूध का आहार ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नकारक है, इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं ।" "अपने विकारों को शान्त करना चाहता हो उसे घी-दूध का इस्तेमाल थोड़ा ही करना चाहिए। ई चीजें न खायें या थोड़ा खायें।" वनपक्व अन्न खा कर निर्वाह किया जा सके तो आाग पर पकाई श्रागमों में ब्रह्मचारी साधु के लिए दूध, दही, घी, नवनीत, तेल, गुड़, खाण्ड, शकर, मधु, मद्य, मांस, खाजा श्रादि विकृतियों से रहित भोजन का विधान है। ब्रह्मचारी इनका रोज-रोज आहार न करे और प्रति मात्रा में तो उनका प्रहार करे ही नहीं । कच्चे वनपक्व फलश्रथवा सब्जियों का सीधा व्यवहार अहिंसा की दृष्टि से निग्रंथ साधु मात्र के लिए वर्ग्य है। वैसी हालत में प्रासुक वस्तुनों में से ब्रह्मचारी अपने लिए रूक्ष प्रहार प्राप्त कर कम मात्रा में खाये । मियं कालेज धम्म पणि नाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बम्भचेररओ सया ॥ मनुस्मृति में कहा है- "मधु मांसञ्च वर्जयेत्" ब्रह्मचारी मदिरा और मांस का वर्जन करे। गीता में प्रति कटु, प्रति खट्टा, अति नमकीन, अति उष्ण, अति तीक्ष्ण, रूक्ष और अत्यन्त दाह करनेवाले आहार को राजस कहा गया है। उसे दुःख, शोक और रोगप्रद कहा है"। १ - ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ११-१२ २- वही पृ० १०५ ३- अनीति की राह पर पृ० १२५ ४- वही पृ० १२५ -६ ५-वही : पृ० १३६ ६- उत्तराध्ययन १६.८ ७ - गीता १७.६: - कट्वम्हसवणात्युष्णतीरणरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्वष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ tele 是 512 अ) Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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