SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६. शील की नव बाई इतने मुग्ध हो भी तो ऐसा ही दुर्गन्धयुक्त है। यह भी प्रशचि से भरा है। इस तरह पशुचि भावना को जागृत कर मल्लि ने नृपों को मोह-रहित किया। दूसरी कथा में राजा चन्द्रप्रद्योत मृगावती के रूप के वर्णन को सुनकर उस पर मुग्ध होता है । विधवा मृगावती को पाने के लिए उसके राज्य पर चढ़ाई कर देता है। इसी बीच श्रमण भगवान महावीर पधारते हैं। मृगावती भगवान महावीर की शरण में पहुंच राजा चन्द्रप्रद्योत्र को विकारपूर्ण दृष्टि से अपनी रक्षा करती है। । कुमारी मल्लि और विधवा रानी मृगावती दोनों ने पांचों महाव्रत ग्रहण कर प्रव्रज्या ग्रहण की। तीसरी कथा में नारद द्वारा वर्णित द्रौपदी के रूप को सुन कर राजा पद्मनाभ उस पर मुग्ध हो उसका हरण करवाता था। फिर कृष्ण द्रौपदी का उद्धार करते हैं। ... तीसरी बाड़ (ढाल ४) : एक आसन का वजन - तीसरी बाड़ में ब्रह्मचारी साधु के लिए यह नियम है कि वह स्त्री के साथ एक शय्या या प्रासन पर न बैठे। पहली बाड़ में स्त्री आदि से संसक्त स्थान में रहने का वर्जन है। इस बाड़ में सह-पासन तथा सह-शय्या का वर्जन है। यह स्थूल वर्जन है । सूक्ष्म रूप में स्त्रीसंसर्ग, स्त्री-परिचय, स्त्रियों से ममता, उनकी आगत-स्वागत, उनसे बार-बार बात-चीत, यदा-कदा मिलना-जुलना और उनके साथ घुमनाफिरना और उनके स्पर्श आदि के परिवर्जन की भी शिक्षा इस बाड़ में है । नारी और पुरुष की पारस्परिक, शारीरिक या वाचिक सन्निकटता ब्रह्मचर्य के लिए वैसी है जैसे कि घी, लाख, लोह आदि की अग्नि के साथ सन्निकटता। घी और लाख की तो वात ही क्या लोह जसी कठोर वस्तु भी अग्नि के संसर्ग से पिघल जाती है। वैसे ही घोर ब्रह्मचारी भी स्त्री-संसर्ग से ब्रह्मचर्य को खो बैठता है। इस दृष्टि से राजमार्ग यही दिया गया है कि सुतपस्वी भी स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे। ब्रह्मचारी यह नियम पराई स्त्रियों के साथ ही नहीं, माँ, बेटी, बहिन जैसी स्त्रियों के साथ भी पालन करे, ऐसा कहा है। ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियों का संसर्ग विष-लिप्त कंटक के समान है । वह ताल विष की तरह है । ब्रह्मचारिणियों के लिए भी पुरुष-संसर्ग को ऐसा ही समझना चाहिए। स्वामीजी ने इस बाड़ के महत्व को हृदयंगम कराने के लिए काचर, कोहला तथा प्राटे का मौलिक दृष्टान्त दिया है। काचर, कोहला को "पाटे में डालकर गूंथने से आटा लसरहित हो जाता है-वह संधता नहीं। वैसी ही नारी-प्रसंग से, स्त्री के साथ एक शय्या, आसनादि पर बैठने आदि से ब्रह्मचारी के परिणाम चल-विचलित हो जाते हैं और ब्रह्मचर्य से ध्यान छूट जाता है। वह समाधियोग से भ्रष्ट हो जाता है। एक प्रासन पर बैठने से ब्रह्मचारी का किस प्रकार पतन होता है, इसका क्रम इस ढाल में बड़े ही सुन्दर ढंग से बतलाया है। : 'स्त्रीशयनादिकं च मा भज'-इस नियम के पीछे एक विशेष वैज्ञानिक भूमिका है जिसका उल्लेख ढा० ४ गा०५-७, १० में आया। है। वहाँ इस बात का जिक्र है कि नारी वेद के पुद्गलों का स्पर्श पुरुष में और पुरुष वेद के पुद्गलों का स्पर्श नारी में काम-विकार उत्पन्न करता है। इस वेद-स्वभाव को ध्यान में रखकर ज्ञानियों ने यहाँ तक नियम किया है कि जिस स्थान पर नारी बैठ चुकी हो उस स्थान पर ब्रह्मचारी एक मुहर्त तक न बैठे। ब्रह्मचारी को सावधान किया गया है कि वह वेद-स्वभाव को हमेशा स्मृति में रखे और नारी-प्रसंग का सदा परिवर्जन करता रहे। स्त्री-संस्पर्श से सम्भूत मुनि का पतन किस प्रकार हुआ, इसका रोमाञ्चकारी उल्लेख इस बाड़ की ढाल में है । यह कथा परिशिष्ट-क में । पृ० १०१ पर दी गई है। १--ढाल ४ दो० २,३ तथा पृ० २६ टि० १ २-ढाल ४ दो० २,४ पृ० २६ टि० २,३ ३-ढाल ४ गा० १३ , पृ० २८ टि० १२ ४-पृ० २६ टि० १ अन्तिम पेरा : पृ० २८ टि० १२ ५-ढाल ४ गा० २, पृ० २७ टि०४ ६-ढाल ४ गा० ८-६ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy