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________________ भूमिका नि "प्राचार्य रूप से वरुण ने जिस जल को अपने पास रखा, वही वरुण प्रजापति से जो फल चाहते थे, वही मित्र ने ब्रह्मचारी होकर प्राचार्य को दक्षिणारूप से दिया ॥१५॥ वन ... "विद्या का उपदेश देकर प्राचार्य ब्रह्मचारीरूप से प्रकट हुये हैं। वही तप से महिमावान् हुए, प्रजापति बने । प्रजापति से विराट होते हये वही विश्व के स्रष्टा परमात्मा हो गये ॥१६॥ BA S T - "वेद को ब्रह्म कहते हैं। वेदाध्ययन के लिये पाचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। उसी ब्रह्मचर्य के तप से राजा अपने राज्य को पुष्ट करता है और प्राचार्य भी ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मवारी को अपना शिष्य बनाने की इच्छा करता है ॥१७॥ ___ "जिसका विवाह नहीं हुआ है ऐसी, स्त्री ब्रह्मचर्य से ही श्रेष्ठ पति प्राप्त करती है । अनड्वान् आदि भी ब्रह्मचर्य से ही श्रेष्ठ स्वामी को प्राप्त करते हैं। अश्व ब्रह्मचर्य से ही भक्षण योग्य तृणों की इच्छा करता है ॥१८॥ "अग्नि प्रादि देवताओं ने ब्रह्मचर्य से ही मृत्यु को दूर किया। ब्रह्मचर्य से ही इन्द्र ने देवताओं को स्वर्ग प्राप्त कराया ॥१६' "श्रीहि, जो प्रादि औषधियां, वनौपधियां, दिन, रात्रि, चराचरात्मक विश्व, पट ऋतु और द्वादश मासवाला वर्ष ब्रह्मचर्य की महिमा से ही गतिमान हैं ॥२०॥ "प्राकारा के प्राणी, पृथ्वी के देहधारी पशु प्रादि, पंखवाले और बिना पंखवाले ये सभी ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ही उसन्न हुये हैं ॥२१॥ "प्रजापति के बनाये हुये देवता, मनुष्य प्रादि सब प्राणों को धारण-पोषण करते हैं। प्राचार्य के मुख से निकला वेदात्मक ब्रह्म ही ब्रह्मचारी में स्थित होता हुआ सब प्राणियों की रक्षा करता है ।।२२।। Em -ms . Sir "यह परब्रह्म देवाताओं से परोक्ष नहीं है। वह अपने सच्चिदानन्द रूप से दीप्तिमान रहता है, उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है, उन्हीं से ब्राह्मण का सर्व श्रेष्ठ धन वेद प्रकट हुया है, और उससे प्रतिपाद्य देवता भी अमतत्व सहित प्रकट हुये हैं ॥२३॥ 5 "ब्रह्मचारी वेदात्मक ब्रह्म को धारण करता और सब प्राणियों के प्राणापानों को प्रकट करता है। फिर व्यान नामक वायु को; शब्दात्मिका वाणी को अन्तःकरण और उसके भावास रूप हृदय को, वेदात्मक ब्रह्म और विद्यारिमका बुद्धि को वही ब्रह्मचारी उत्पन्न करता है ॥२४॥ ___"हे ब्रह्मचारिन् ! तुम हम स्तुति करनेवालों में रूप-ग्राहक नेत्र, शब्द-ग्राहक श्रोत्र, यश और कीर्ति की स्थापना करो। अन्न, वीर्य, रक्त, उदर आदि की कल्पना करता हुमा ब्रह्मचारी तप में लीन रहता और स्नान से सदा पवित्र रहता है तथा वह अपने तेज से दमकता है ॥२५,२६॥ श्री काने के अनुसार इस सूक्त में ब्रह्मचारी (वेद-विद्यार्थी) और ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन है। डॉ० मङ्गलदेव शास्त्री लिखते हैं-"स्पष्ट प्रतीत होता है कि कम-से-कम मंत्र-काल में चारों आश्रमों की व्यवस्था का प्रारंभ नहीं हुआ था। ऐसा होने पर भी ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-इन दो पाश्रमों के सम्बन्ध में वेद-मन्त्रों में जो उत्कृष्ट और भव्य विचार प्रकट किये हैं, उनको हम बिना किसी अतिशयोक्ति के भारतीय संस्कृति की स्थायी एवं अमूल्य संपत्ति कहते हैं। वेदों के अनेकानेक मंत्रों में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ का बड़ा हृदय-स्पर्शी वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ अथर्ववेद के एक पूरे सूक्त (१११५) में ब्रह्मचर्य की महिमा का ही वर्णन है।" - इस सूक के २४, ४ और १७ ३ मंत्र पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है--"यहाँ स्पष्ट शब्दों में राष्ट्र की चतुरस्र उन्नति के लिए और मानवजीवन के विभिन्न कर्तव्यों के सफलता पूर्वक निर्वाह के लिए श्रम और तपस्या द्वारा विद्या-प्राप्ति (ब्रह्मचर्य) की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है......श्रम और तपस्या पर निर्भर ब्रह्मचर्य-धाश्रम की उद्भावना वैदिक धारा की व्यापक दृष्टि का निसन्देह एक समुज्ज्वल प्रमाण है।" श्री कान और शास्त्री के उल्लिखित मतों के अनुसार ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ है-वेदाध्ययन, ब्रह्मचारी शब्द का अर्थ है-वेद-पाठी और यमचर्य पाथम का अर्थ है-वेदाध्ययन के लिए प्राचार्य कुल में वास करना। इससे इतना स्पष्ट है कि अथर्ववेद के उक्त सूक्त में संयम रूप ब्रह्मचर्य का नहीं, पर वेदाध्ययन रूप ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन है। १-History of Dharmasastra Vol. II Part I P. 270 २.-भारतीय संस्कृति का विकास (वैदिकधारा) पृ० १३० ३-वही Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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