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________________ शील की नब बाद 3 1 12te १७-ब्रह्मचर्य की दो स्तुतियाँ Hindi ," क)दिक स्तुति अथर्ववेद (१९६५) में निम्न सूक्त मिलता है: "माकाश-पृथ्वी दोनों लोकों को तप से व्याप्त करनेवाले ग्रहवारी के प्रति सब देवता समान मनवाले होते हैं। वह अपने सपने प्राकाश का पोषण करता है और अपने प्राचार्य का भी पोषण करता है ॥१॥ "ब्रह्मचारी के रक्षार्थ पितर, देयता, इन्द्रादि उसके अनुगत होते हैं। विश्वावसु धादि भी उसके पीछे चलते हैं। तेतीस देवता, इन ..... विभूति रूप तीन सौ तीन देवता और छः सहस्र देवता, इन सबका ब्रह्मचारी अपने तप द्वारा पोषण करता है ॥ २॥ उपनयन करनेवाला प्राचार्य, विद्यामय शरीर के गर्भ में उसे स्थापित करता हुप्रा तीन रात तक ग्रहवारी को अपने उदर में रखा है, चौथे दिन देवगण उस विद्या-देह से उत्पन्न ब्रह्मचारी के सम्मुख पाते हैं ॥ ३ ॥ "पृथ्वी इस ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा है और आकाश द्वितीय समिधा । प्राकाश-पृथ्वी के मध्य अग्नि में स्थापित हुई समिधा से ब्रह्मचारी संसार को संतुष्ट करता है। इस प्रकार समिधा, मेखला, मौजी, श्रम, इन्द्रियनिग्रहात्मक खेद और देह को संताप देनेवाले अन्य नियमों को पालता हुआ पृथिव्यादि लोकों का पोषण करता है ॥ ४॥ 1 ब्रह्मचारी ब्रह्म से भी पहले प्रकट हुमा, वह तेजोमय रूप धारण कर तप से युक्त हुप्रा । उस ब्रह्मचारी रूप से तपते हुए ब्रह्म द्वारा श्रेष्ठ वेदात्मक ब्रह्म प्रकट हुपा और उसके द्वारा प्रतिपादित अमि प्रादि देवता भी अपने अमृतत्व प्रादि गुणों के सहित प्रकट हुए ॥५॥ "प्रात: सायं अमि में रखी समिधा और उससे उत्सल हुए तेन से तेजस्वी, मृग चर्मधारी ब्रह्मचारी अपने भिक्षादि नियमों का पालन करता है, वह शीघ्र ही पूर्व समुद्र से उत्तर समुद्र पर पहुंचता है और सब लोकों को अपने समक्ष करता है ॥६॥ 2 "ब्रह्मचर्य से महिमा युक्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण जाति को उत्पन्न करता है। यही गंगा प्रादि नदियों को प्रकट करता है। स्वर्ग, प्रजापति, परमेष्ठी और विराट को उत्पन्न करता है। वह अमरणशील ब्रह्म की सत्-रज-तम गुण से युक्त प्रकृति में गर्भ रुप होकर सब वर्णन किये हुए प्राणियों को प्रकट करता है और इन्द्र होकर राक्षसों का नाश करता है ॥७॥ बोरामों का नाश करता है॥७॥ माया यह अाकाश और पथिवी विशाल हैं। इन पृथिवी और प्राकाश के उत्पादक प्राचार्य की भी ब्रह्मचारी रक्षा करता है। सब देवता ऐसे ब्रह्मचारी पर कृपा रखते हैं ॥८॥ "पृथिवी और प्राकाश को ब्रह्मचारी ने भिक्षा रूप में ग्रहण किया, फिर उसने उन प्राकाश पृथिवी को समिधा बनाकर अग्नि की प्राराधना की। संसार के सब प्राणी उन्हीं प्राकाश-पृथिवी के प्राश्रय में रहते हैं "पृथिवी लोक में प्राचार्य के हृदय रूप गुहा में एक वेदात्मक निधि है। दूसरी देवात्मक निधि उपरि स्थान में है। ब्रह्मचारी इन निधियों . की अपने तप से रक्षा करता है । वेदविद् ब्राह्मण शब्द और उसके अर्थ से सम्बन्वित दोनों निधियों को ब्रह्म रूप करता है ॥१०॥ "उदय न हुआ सूर्य रूप अग्नि पृथ्वी से नीचे रहते हैं । पार्थिव अग्नि पृथ्वी पर रहते हैं । सूर्योदय होने पर अाकाश पृथ्वी के मध्य यह . दोनों अग्नियां संयुक्त होती हैं। दोनों की किरणें संयुक्त होकर दृढ़ होती हुई आकाश-पृथिवी की प्राश्रित होती हैं। इन दोनों अग्नियों से सम्पन्न । ब्रह्मचारी अपने तेज से अग्नि देवता होता है ॥११॥ . "जल पूर्ण मेघ को प्राप्त हुये वरुण देव अपने वीर्य को पृथ्वी में सींचते हैं। ब्रह्मचारी अपने तेज से उस वरुणात्मक वीर्य को ऊंचे प्रदेश में । सींचता है। उससे चारों दिशायें समृद्ध होती हैं ॥१२॥ _ "ब्रह्मचारी, पार्थिव अग्नि में चन्द्रमा, सूर्य, वायु और जल में समिधायें डालता है। इन अग्नि ग्रादि का तेज पृथक-पृथक् रूप से अन्तरिक्ष । में रहता है। ब्रह्मवारी द्वारा समिद्ध अग्नि वर्षा, जल, घृत, प्रजा आदि कार्य को करते हैं ॥१३॥ २५० "प्राचार्य हो मृत्यु है, वही वरुण है, वही सोम है। दुग्ध, व्रीहि; यव और औषधियां प्राचार्य की कृपा से ही प्राप्त होती हैं। प्रथवा यह । स्वयं ही प्राचार्य हो गए हैं ॥१४॥ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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