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________________ शील की नव बाड़ स्त्रियों को पुरुषों के समान आध्यात्मिक अधिकार देकर महावीर ने कितना बड़ा काम किया-इस सम्बन्ध में संत विनोबा लिखते हैं : E, "महावीर के सम्प्रदाय में स्त्री-पुरुषों का किसी प्रकार कोई भेद नहीं किया गया है ।... पुरुषों को जितने आध्यात्मिक अधिकार मिलते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी हो सकते हैं । इन प्राध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियाँ थीं। वह प्रथा आजतक जैन धर्म में चली आ रही है । आज भी जैन संन्यासिनी होती हैं।...यह एक _बहुत बड़ी विशेषता माननी चाहिए।...जो डर बुद्ध को था, वह महावीर को नहीं था, यह देख कर आश्चर्य होता है। महावीर नीडर दीख पड़ते हैं। इसका मेरे मन पर बहुत असर है। इसीलिए मुझे महावीर की तरफ विशेष आकर्षण है ।...महापुरुषों की भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ होती हैं; लेकिन _ कहना पड़ेगा कि गौतम बुद्ध को व्यावहारिक भूमिका छु सकी और महावीर को वह छु नहीं सकी । उन्होंने स्त्री-पुरुषों में तत्त्वत: भेद नहीं रखा। वे इतने दृढ़ प्रतिज्ञ रहे कि मेरे मन में उनके लिए एक विशेप ही सादर है। इसी में उनकी महावीरता है। कि "महावीर स्वामी के वाद २५०० साल हुए, लेकिन हिम्मत नहीं हो सकती कि बहिनों को दीक्षा दे। मैंने सुना कि चार साल पहले रामकृष्ण परमहंस-मठ में स्त्रियों को दीक्षा दी जाय-ऐसा तय किया गया। स्त्री और पुरुषों का प्राश्रम अलग रखा जाय, यह अलग बात है। लेकिन अबतक स्त्रियों को दीक्षा ही नहीं मिलती थी, वह अब मिल रही है । इस पर से अंदाज लगता है कि महावीर ने २५०० साल पहले उसे करने में कितना बड़ा पराक्रम किया" दादा धर्माधिकारी लिखते हैं : 'हम लोगों की अक्सर यह धारणा रही है कि स्त्रियों के विषय में प्राचीन आदर्श ऊंचे थे । और बातों में दे रहे होंगे, लेकिन इतना मुझे नम्रतापूर्वक कह देना चाहिए कि स्त्रियों सम्बन्धी सारे प्राचीन ग्रादर्श, स्त्रियों की मनुष्यता की हानि और अपमान करनेवाले थे।...किसी धर्म में स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व कभी नहीं रहा । मेरी माँ कोई धार्मिक विधि अकेले नहीं कर सकती । मेरे पिताजी की वह सहधर्मिणी है, मुख्य धर्मिणी नहीं । पिताजी न हों, तो उसका अपना कोई धर्म नहीं है । पिताजी जो पुण्य करते हैं, उसका प्राधा पुण्य अपनेआप उसे मिल जाता है और वह जो पाप करती है, उसका प्राधा पाप पिताजी को अपने-ग्राप लग जाता है। वह जो पुण्य करती है, उसका प्राधा पिताजी को नहीं मिलता और पिताजी जो पाप करते हैं, उसका आधा उसे नहीं लगता। यह मर्यादा है।...इसलिए मुख्य धर्म और मुख्य कर्त्तव्य पुरुष का है, स्त्री की केवल सहधर्मिणी की भूमिका है, वह सह-जीवनी है, उसका अपना स्वतन्त्र जीवन नहीं है। जैनों और बौद्धों के कुछ प्रयासों को हम छोड़ दें, तो आज तक की जो परम्परा और समाज-स्थिति है, वह यह है कि स्त्री की भूमिका गौण और दोयम रही है। उसका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं रहा । इसलिए ब्रह्मचर्य उसका मुख्य धर्म कभी नहीं माना गया। पुरुष का मुख्य धर्म ब्रह्मचर्य माना गया। "स्त्री मझसे कहती है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक नैतिक हैं। अधिक नैतिकता का मतलब यह तो नहीं कि अधिक संयमी हैं, अधिक ब्रह्मचर्यनिष्ठ हैं । ब्रह्मचर्य का तो उनके लिए निषेध है।...मेरा नम्र सुझाव यह है कि स्त्री के जीवन में ब्रह्मचर्य का स्थान वही होना। चाहिए, जो पुरुष के जीवन में है। इसे मैं ब्रह्मचर्य जीवन का सामाजिक मूल्य कहता हूं।" ७-ब्रह्मचर्य और संयम का हेतु क्या हो ? प्राचार्य विनोबा भावे से किसी ने यह प्रश्न किया था कि भूदान यज्ञ के लिए कोई ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हो तो आप उसके बारे में क्या कहेंगे? इसका जो उत्तर उन्होंने दिया वह सच्चे उद्देश्य को बताने की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण और मननीय है। ब्रह्मचर्य व संयम का पालन किस हेतु से होना चाहिए-इस पर उन्होंने पहले भी एक बार प्रकाश डाला था। दोनों विचार नीचे दिये जाते हैं: १-ब्रह्मचर्य का ठीक मतलब भी हमें समझ लेना चाहिए। भीष्म को हम अादर्श ब्रह्मचारी मानते हैं, परन्तु भीष्म ने अपने पिता के लिये ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया। उनको ब्रह्म की उपासना की प्रेरणा उससे पहले नहीं हुई थी। वे तो शादी करनेवाले थे। फिर भी उन्होंने ब्रह्मचर्य-प्रत बहुत अच्छी तरह से निभा.लिया। परन्तु उनको हम आदर्श ब्रह्मचारी नहीं कह सकते। साक्षात् ब्रह्म के लिए जो ब्रह्मचारी रहेगा, वही प्रादर्श होगा। उसी को ब्रह्मचारी कहा जा सकता है, जो लोग देश के लिए ब्रह्मचारी रहते हैं, उनके व्रत को ब्रह्मचर्य नहीं लद्देशचर्य ११-श्रमण वर्ष अंक हपृ०.३७-३६ का सार 2013 २-सर्वोदय-दर्शन पृ० २३५-६, २३६-६ : Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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