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________________ 'भूमिका १५ छाई की तरह चलती है । यदि वहाँ पुरुष नारी को छोड़ कर धर्म अनुष्ठान नहीं कर सकता तो नारी भी पुरुष से दूर रह कर प्राध्यात्मिक कल्याण की व्यापक रूप में सम्पादित नहीं कर सकती ऐसी विचारधारा है। वैदिक परम्परा में नारी सन्यास को स्थान नहीं, इसलिए पुरुष से दूर रह कर स्वतंत्र रूप से चरम कोटि की प्राध्यात्मिक साधना के उदाहरण प्रचुर मात्रा में नहीं मिलते। जैन परम्परा में नारी के लिए संन्यास भी हर समय खुला रहा है अतः उच्चतम कोटि की प्राध्यात्मिक साधना में स्त्रियों पुरुषों के समान ही दीप्त रहीं। वैदिक परम्परा में नारी जाति को गौरवपूर्ण उच्चासन दिया गया है और नारो को पुरुष मित्र श्रीर समकक्ष के रूप में श्रंकित करने के दृष्टान्त सामने आते हैं, परन्तु उनमें अंकित वर्णन अधिकांश में नारी को अर्धाङ्गिनी के रूप में हो उपस्थित करते हैं। नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व वहाँ प्रस्फुटित दिखाई नहीं देता और उसकी बहुत ही थोड़ी-सी अभिव्यक्ति वहाँ मिलती है। परन्तु जैन धर्म में नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व शुरू से ही स्वीकृत है और उसके समान ही उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए सम्पूर्ण प्राध्यात्मिक साधना का मार्ग खुला है। 1 जैन धर्म में नारी की धर्म-भावना को वही श्रादर दिया जाता है जो पुरुष की धर्म-भावना को वैवाहिक जीवन में नारी पुरुष की सहचारिणी रहती है, उसकी सेवा-शुश्रूषा करती है और गृहस्थी का भार योग्यतापूर्वक वहन करती है । परन्तु साथ ही साथ श्रात्मा के उत्कर्ष के लिए, आत्मा की शोध-खोज एवं आध्यात्मिक चिन्तन और साधना में भी अपना यथेष्ट समय लगाती है। वैदिक परम्परा में नारी के स्वावसम्बी जीवन की कल्पना नहीं है और यदि है तो अपवाद रूप में ही परन्तु जैन धर्म में स्वावलम्बी नारी जीवन की कल्पना प्रचुर अमान मिलती है। पुरुष के साथ सहधर्मिणी होकर रहना उसके जीवन का कोई यूढान्त नहीं, यदि यह चाहे तो आजीवन ब्रह्मचारिणी रह कर भी आदर्श जीवन प्रतिवाहित करने के लिए स्वतंत्र है । मैं वैदिक परम्परा में नारी का धार्मिक संघ नहीं । बौद्ध परम्परा में भिक्षुणी संघ विच्छिन्न प्रायः है। जैन परम्परा में साध्वियों का भिक्षुणी संघ आज भी भारत भूमि को पवित्र करता है । 1 कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में जैन धर्म में नारी को उतनी ही स्वतंत्रता है जितनी पुरुष को जैसे पुरुष सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण और सर्व परिग्रह विरमण रूपी महाप्रतों को ग्रहण करने में स्वतंत्र है, वैसे ही नारी भी । इस विषय में सब धर्मों की स्थिति को उपस्थित करते हुए संत विनोबा लिखते हैं: "इसलाम ने यह विचार रखा है कि गृहस्थ धर्म ही पूर्ण आदर्श है। बाकी के आदर्श, जैसे ब्रह्मचारी का, गौण आदर्श है। वैसे भगवान ईसा तो आदरणीय थे, वे ब्रह्मचारी थे, परन्तु उनका जीवन पूर्ण जीवन नहीं माना जायगा । मुहम्मद का श्रादर्श पूर्ण है । वे गृहस्थ थे। वैसे ब्रह्मचारी को एक्सपर्ट (विशेषज्ञ) जैसा माना जायगा । विशेषज्ञ एकांकी होते हैं, परन्तु समाज को उनकी भी जरूरत होती है। इसी तरह, जिन्होंने शुरू से धाखिर तक ब्रह्मचारी का जीवन बिताया, उनका आदर्श पूर्ण नहीं पुरयोतन, पूर्ण याद तो गृहस्य ही है। स्त्रियों के लिए धीर पुरुषों के लिए, दोनों के लिए, ग्रहस्य का ही आदर्श है इस दृष्टि से मुसलमानों का चिन्तन चलता है। “वैदिक धर्म में ब्रह्मचारी को ही प्रादर्श माना गया है।... बीच के जमाने में स्त्री-पुरुषों में भेद माना गया। जिससे हिन्दूधर्म की दुर्दशा हो गयी। पुरुष को तो ब्रह्मचर्य का अधिकार रहा, लेकिन स्त्री को इसका अधिकार नहीं रहा। इसलिए स्वी को गृहस्थाधमी बनना ही चाहिए। ऐसा माना गया। धर यह यहस्याधमी नहीं बनती है, तो धर्म होता है ... इस तरह बीच के जमाने में यह एक बहुत बड़ा दोष पैदा हुआ। इसलिए अब इस जमाने में संशोधन करना जरूरी है। हक देने पर भी उसका पालन करनेवाले कम ही होंगे। परन्तु कम हों या ज्यादा; स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य का अधिकार नहीं है, यह बात ही गलत है उससे आध्यात्मिक डिसएबिलिटी (मपाजता) पैदा होती है। अगर कोई व्यावहारिक पाता होती, तो उसमें सुधार करना सम्भव है। लेकिन माध्यात्मिक ही अपात्रता हो, तो वह बड़े दुख की बात है। हिन्दुस्तान में बीच के जमाने में जो रोगोहानि हुई, उसका यह भी कारण है कि स्त्रियों को ब्रह्मचर्य का अधिकार नहीं रहा ।... लेकिन उपनिषदों में उल्टी बात है। यहाँ स्त्री-पुरुषों में कोई भेद नहीं किया गया है... हिन्दुओं में स्वो की पावता मानी गयी है। यह सब गलत है। "लेकिन, जैनों में स्त्री और पुरुष, दोनों को समान माना है । ईसाइयों में जो कैथोलिक हैं, वे स्त्री-पुरुषों को समान मानते हैं। लेकिन जो प्रोटेस्टेन्ट होते हैं, उनका समान करीब-करीब मुसलमानों के जैसा ही है। वे मानते हैं कि ब्रह्मचर्य अशक्य वस्तु है और गृहस्थाश्रम हीमादर्श है। लेकिन कैथोलिकों में भाई और बहने दोनों ब्रह्मचारी होते हैं।" १- कार्यकर्ता वर्ग : ब्रह्मचर्य पृ० ३५-४० का सार Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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