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________________ शील की नव बाद हुआ यहाँ के नगरवासियों ने मंगलदेव को अपना राजा बनाया देवदत्ता पटरानी के रूप में राजमहल में आई। इस प्रकार मंगलदेव का स्वप्न सत्य निकला। ८० तपस्वी के शिष्य को जब मंगलदेव के राजा होने का समाचार ज्ञात हुआ, उसने नियमित रूप से कुटिया में शयन कर पुनः उस स्वप्न की प्राप्ति की अभिलाषा की, लेकिन उसे पुनः वह स्वप्न नहीं दीखा । स्यात् ऋषि -शिष्य को स्वप्न दर्शन हो भी जाए, लेकिन खोये मनुष्य जीवन को पुनः पाना दुर्लभ है। कथा - १०: A राधावेध का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर सातव दृप्यन्त ) [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४) के साथ है ] इसके बावजूद राजा ने अपने प्रधान की पुत्री पर मोहित हो, उससे भी प्रेम-संबंध अस्थिर रहा। प्रधान की पुत्री पिता के पास रहने लगी। कुछ दिनों के झरोखे पर खड़ी एक सुन्दरी पर उसकी दृष्टि पड़ी। जिज्ञासा करने पर उसे ज्ञात उसीकी परित्यक्ता सनी थी । सजा काम भावना को संवरण नहीं कर सका और ठहर गया । शुभमुहूर्त में दोनों के सहवास से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदेव के २२ पुत्र थे। विवाह कर लिया। लेकिन दोनों का बाद राजा जब बाहर जा रहा था, हुआ कि सुन्दरी अन्य कोई नहीं बल्कि उस रात्रि को अपने प्रधान के वहाँ ही सुरेन्द्रदत रखा गया । २२ राजपुत्रों के साथ ही सुरेन्द्रदत्त ने भी एक ही आचार्य के यहाँ शिक्षा प्राप्त की । उस समय मथुरा नगरी के राजा जितशत्रु की कन्या निवृत्ति का स्वयंवर होनेवाला था। अपने २२ पुत्र सहित स्वयंवर में उपस्थित होने का आमंत्रण राजा इन्द्रदेव को भी भेजा गया । निवृत्ति कुमारी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो व्यक्ति राधावेध वेध सकेगा, उसीको वह वरण करेगी। राजा इन्द्रदेव अपने २२ पुत्रों के साथ स्वयंवर भवन में पधारे। प्रधान भी अपने दुहिते के साथ वहाँ उपस्थित था। एक एक कर २२ राजपुत्रों को राधावेध साधने का अवसर दिया गया लेकिन सबके सब असमर्थ रहे। पुत्रों की अकर्मण्यता से इन्द्रदेव को घोर ओभ हुआ। राजा को खिन्न देखकर प्रधान ने उनसे कहा- अभी आपका २३ वां पुत्र बाकी है, उसे मौका दीजिए।" ऐसा कहकर प्रधान ने सुरेन्द्रदत्त के जन्म का पूर्ण वृतान्त इन्द्रदेव को बताया। राजा के प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उसने २३ वें पुत्र को राधावेध साधने की आज्ञा दी। पिता, गुरु एवं अग्रजों का स्मरण कर उसने राधावेध साधने में सफलता प्राप्त की । जितशत्रु की पुत्री निवृत्ति कुमारी के साथ ही उसे मथुरा नगरी का राज्य भी प्राप्त हुआ। 1 । राजा के २२ पुत्र राधावेध करने में असफल रहे कदाचित देव प्रयोग से उन्हें सफलता मिल भी जाती; लेकिन जो मनुष्य एकवार कर्मच्युत हो मनुष्य नव को हार जाता है, उसे यह जीवन पुनः प्राप्त करना दुर्लभ ही है। १-- उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३ गा० १ की नैमिचन्द्रिय टीका के आधार पर। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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