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________________ र शील की नव बाड़ -नाक में आई हुई गंध को न सूंघना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय गन्ध के प्रति राग और अप्रिय गंध के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का रसमस्साउं जीहाविसयमागर्य, रागदोसा उ जे तत्थ,ते भिक्खू परिवज्जए। -आचारांग -जिह्वा के सम्पर्क में आए हुए रसों का स्वाद न लेना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय रस के प्रति राग और अप्रिय रस के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का फासमवेदेउं फासविसयमागयं, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। --आचारांग -शरीर के स्पर्श में आए हुए स्पशी का अनुभव न करना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय स्पशी के प्रति राग ओर अप्रिय स्पशों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। र स्वामीजी कहते हैं : शब्द, रूप आदि विषयों के प्रति उपर्युक्त निरपेक्ष भाव ही ब्रह्मचर्य की सुरक्षा का दसवां स्थानक अथवा सुदृढ़ परकोटा है। [३] ढाल गाथा ६-७ गाथा १ से ५ में जो भाव आये हैं उन भावों का सार संक्षेप में इस गाथा में प्रस्तुत हुआ है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श दो तरह के होते हैं। अच्छे-बुरे शब्द-रूपादि के प्रति राग-द्वेष न करना समभाव या वीतरागता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है: चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाह, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ -उत्त० ३२: २२ -रूप चक्षु-ग्राह्य है। रूप चक्ष का विषय है। प्रिय रूप राग का हेतु है और अप्रिय रूप द्वेष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहे तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउ अमणुन्नमाहू, समो य जो तेस स वीयरागो । ..... -उत्त० ३२ : ३५ . -शब्द श्रोत-ग्राह्य है। शब्द कान का विषय है। प्रिय शब्द राग का हेतु है और अप्रिय शब्द देष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है. वह वीतराग है। घाणस्स गधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाह। तं दोसहेउं अमणुन्नमाह. समो य जो तेस स वोयरागो॥APER -उत्त० ३२४ -ध घ्राण-ग्राह्य है। गंध नाक का विषय है। प्रिय गंध राग का हेतु है और अप्रिय गंध द्वेष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाह । त दोसहेउ अमणुन्नमाहू, समो य जो तेसु स वीयरागो । -उत्त० ३२:६१ -रस जिह्वा-ग्राह्य है। रस जिह्वा का विषय है। प्रिय रस राग का हेतु है और अप्रिय रस देष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है. वह वीतराग है। कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाह. समो य जो तेस स वीयरागो॥ -उत्त० ३२: ७४ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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