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________________ कोट ढाल ११ टिप्पणियाँ टिप्पणियाँ १ दोहा १-४ : ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के दस स्थानकों में से अंतिम स्थानक का विवेचन प्रस्तुत दाल में है। ब्रह्मचर्य-रक्षा के प्रथम नौ उपायों में से प्रत्येक को एक बाड़ की संज्ञा दी गई है। इस दसवें स्थानक को कोट कहा गया है। यह कोट वचर्य की रक्षा के लिए प्ररूपित गुडियों अथवा दाड़ों को चारों ओर से घेरे हुए है। बाहर के कोट में दरार होने पर जैसे अन्दर को बाड़ों के भङ्ग होने में देर नहीं लगती और वाड़ों के भंग होने से खेत के नाश होने में देर नहीं लगती, वैसे ही ब्रह्मचर्य के दसवें स्थानक के भंग होने से अन्य स्थानकों के भंग होने में देर नहीं लगती और उनके मन होने से ब्रह्मचर्य रूपी खेत के विनाश होने में देर नहीं लगती। ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि कोट रूपी यह दसवाँ स्थानक बाढ़ रूपी अन्य स्थानको से वहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसे अखण्डित रखना परम आवश्यक है। क्योंकि इसकी सुरक्षा से ही अन्य सुरक्षित रहने से ही मूल ब्रह्मचर्य व्रत सुरक्षित रह सकता है। जिस प्रकार नगर का प्राकार सुदृढ़ रहने से नहीं रहता और वे निश्चिन्त रहते हैं, उसी प्रकार इस दसवें स्थानक को सुरक्षित रखने से अन्य स्थानक किसी प्रकार की आँच नहीं आ सकती। स्थानक सुरक्षित रह सकते हैं और उनके नागरिकों को शत्रु के आक्रमण का मय भी सुरक्षित रहते हैं और ब्रह्मचर्य व्रत को [२] ढाल गा० १-५ : ब्रह्मचर्य की रक्षा के दसवें समाधि स्थानक का स्वरूप इस प्रकार है कि व्रह्मचारी को शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श- इन्द्रियों के इन विषयों मैं राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। इस स्वरूप का आधार सूत्र के निम्न वाक्य हैं : सद्दे रुवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥ उत्त० १६ : १० - ब्रह्मचारी शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन्द्रियों के इन पाँच प्रकार के विषयों को सदा के लिए छोड़ दे। विसयेसु मणुन्नुस्, पेनं नाभिनिवेसए अणिच्च तैसि विन्नाय परिणाम पोग्गलाण य ॥ पोग्गलाण परीणामं, तेसि नच्चा जहा तहा। विणीयतण्हो विहरे, सीईंभूयेण अप्पणा ॥ ६७ दश०८:५९, ६० --शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श- पुद्गलों के इन परिणामों को अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विपयों में राग-भाव न करे वह अपनी आत्मा को शीतल कर, तृष्णा रहित हो, जीवन-यापन करे । प्रस्तुत गाथा १ से ५ में जिन भावों का विश्लेषण है उनका शास्त्रीय आधार इस प्रकार है : ण सका ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता: रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । - आचारांग सूत्र -कान में पड़े हुए शब्दों न सुनना सम्भव नहीं। भिक्षु कान में पड़े हुए प्रिय शब्दों के प्रति राग और अप्रिय शब्दों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। ण सका रूवमदठ्ठे चक्खुविसयमागयं रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्सू परिवज्जए। - आचारांग --चक्षु-गोचर हुए रूपों को न देखना सम्भव नहीं। भिक्षु प्रिय रूपों के प्रति राग और अप्रिय रूपों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं. रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ -- आचारांग Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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