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________________ rait बाड़ डाल १० : गा० २-८ २ - ठंडा उन्हा पांणी थकी रे लाल, मूल न करणो अंगोल | ०॥ केसर चंदण नहीं चरचणा रे लाल, दांत रंगे न करणा: चोल । म० ए० ॥ ३ – बहु मोलां नें उजला रे लाल, ते वसत्र ने पेंहरणा नांहि | ० || टीका तिलक करणा नहीं रे लाल, ते पण नवमीं बाड़ रे मांहि । म० ए० ॥ ४ – कांकण कुंडल नें मूंदड़ी रे लाल, वले माला मोती नें हार |० ॥ ते ब्रह्मचारी पेंहरें नहीं रे लाल, चले गेंहणा विवध परकार |० ए० ॥ - ५ – नहीं रहणों घटायों मठारीयो रेलाल, सादिक ने समार ब० ॥ वले सत्रादिक पिण पेंहरने रे लाल, मूल न करणों सिणगार" नि० ए० ॥ ६ - विभूषा अंग छें कुसील नों रे लाल, तिण सूं चोकणा करम बंधाय ॥० ॥ तिणसं पड़े संसार सागर मझे रे लाल, तिरो पार वेगों नहीं आय ' ० ए० ॥ ७ - सिणगार कीयां रहें तेहनें रे लाल, अस्त्री देवें चलाय ० ॥ भिष्ट करें सील वरत थी रे लाल, ठालो कर देवें ताय * ब्र० ए० ॥ ८ - रतन हाथे आयो रांक रें रे लाल, ते दीठां खोस ले राय ॥०॥ यूयं ब्रह्मचारी विभ्रूषां कीयां रे लाल, अस्त्री सील रतन खोसें ताय । न० ए० ॥ १६. herm २ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें उष्ण या शीतल जल से कभी स्नान नहीं करना चाहिए। केशर, चन्दन आदि का लेप नहीं करना चाहिए। न दाँतों को रँगना ही चाहिए और न दन्तधावन ही करना चाहिए । ३ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें बहुमूल्य और उज्ज्वल वस्त्रों को नहीं पहनना चाहिए। टीका तिलक नहीं लगाना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत की नवीं बाड़ में. यह वर्जित है । ४ – हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें कंकण, कुण्डल, अंगूठी, माला, मोती और हार नहीं पहनना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को विविध प्रकार के गहने नहीं पहनने चाहिए । ५ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें केशादि को सँवार बन-ठन कर नहीं रहना चाहिए । इसी तरह तुम्हें चटकीले भड़कीले वस्त्रों को पहन कर शृङ्गार नहीं करना चाहिए । ६ - हे ब्रह्मचारी ! अंग - विभूषा कुशीलता का द्योतक है । इससे चिकने - गाढ़ कर्मों का बन्ध होता है और मनुष्य दुस्तर संसार - सागर में गिरता है । उसका शीघ्र अन्त नहीं आता । ७ – हे ब्रह्मचारी ! जो शृङ्गार पूर्वक रहता है, उसको स्त्री विचलित कर देती है। उसे व्रत से भ्रष्ट कर वह निठल्ला बना देती है । ८ - हे ब्रह्मचारी ! जिस प्रकार दरिद्र के हाथ रत्न लगने पर उसे देख राजा उससे छीन लेता है, उसी प्रकार शृङ्गार करने वाले ब्रह्मचारी से स्त्री शील रूपी रत्न को छीन लेती है । Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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