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________________ सातमी वाड़ : दाल ८ : टिप्पणियां [३] दोहा ३-४ : - उत्तराध्यन सूत्र में कहा है-"जिहा रस की गाड आरत का ग्राहक है और रस जिहा का ग्राहक है। अमनोज्ञ रस देष का हेतु ओर मनोज्ञ रस राग का हेतु होता है ।।" सान, मधुर, कटुक. कला और तिक्त ये पाँच रस हैं। जिहा इन मत ति य पाच रस हैं। जिहा इन सव रसों को ग्राहक है। जिसकी जिहा संयमित नहीं होती वह र रसों को कामना करता है। जो स्वादिष्ट रसों का नित्य प्रति अथवा अतिमात्रा में सेवन करता है उसके कामोद्रेक हो ब्रह्मचय का नाश होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : रसा पगाम न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराण । दितं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ -उत्त० ३२:१० -दूध, दही, घी आदि स्निग्ध और खट्टे, मीठे चरपरे आदि रसों से स्वादिष्ट पदार्थों का ब्रह्मचारी वहुधा सेवन न करे। ऐसे पदार्थों के आहार-पान से वीर्य की वृद्धि होती है-वे दीप्तिकर होते हैं। जिस तरह स्वादुफल वाले वक्ष की और पक्षी दल के दल उड़ते चले आते हैं. उसी तरह दोर्य से दीप्ट पुरुष को काम सताने लगता है। [४] दोहा ४ का उत्तराई: स्वामीजी के इन भावों का आधार 'उत्तराध्ययन सूत्र' के निम्न वाक्य हैं : निग्गन्धस्स खलु पणीय आहारं आहारेमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा, भेदं वा लभेजा, उम्माय दा पाउणिजा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसज्जा। - उत्त०१६ : ७ -प्रणीत आहार करनेवाले ब्रह्मचारी के मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका होने लगती है। वह अब्रह्मचर्य की आकांक्षा करने लगता है। उसे विचिकित्सा उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्य से उसका मन-भङ्ग हो जाता है। उसे उन्माद हो जाता है। दीर्घकालिक रोगातंक होते हैं और वह केवली प्ररूपित धर्म से गिर जाता हैं। [५] ढाल गा० १ स्वामीजी ने यहाँ जो कहा है उसका आधार 'प्रश्न व्याकरण सूत्र' के निम्न स्थल में मिलता है: पंचमगं आहारपणीयणि मोयण विवज्जए संजए सुसाहू ववगयखीरदहिसप्पिणवणीयतेल्ल गुलखंड मच्छडिग महुमज्ज मंसखज्जग विगइ परिचियकयाहारेण दप्पण"ण य भवइ विब्ममो ण भंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहार विरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरय मानधन्ने जिइंदिए बमचेरगुत्ते। -प्रभ०२:४ पाँचवों भावना। -संयमी ससाध प्रणीत और स्निग्ध आहार के सेवन का विवर्जन करे। ब्रह्मचारी दूध, दही, घी,नवनीत, तेल, गुड़, खाण्ड,शक्कर, मध, मद्य, मांस खाजा आदि विकृतियों से रहित भोजन करे। वह दर्पकारी आहार न करे। संयमो को वैसा आहार करना चाहिए जिससे संयम-यात्रा का निर्वाह हो. मोह का उदय न हो और ब्रह्मचर्य धर्म से वह न गिरे। है। इस प्रकार प्रगीत-आहार समिति के योग से भावित अंतरात्मा ब्रह्मचर्य में आसक्त मनवाला, इन्द्रिय-विषयों से विरक्त, जिंतेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य मैं गुम होता है। -उव०३२: ६२ रसास जिम गहणं वयंति जिम्माए रसं गहणं वयन्ति । गस्स हेउं समन्नमाहू दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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