SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पापी मार दाल : टिप्पणियाँ टिप्पणियाँ [१] ढाल दोहा १. स्वामीजी की यह व्यारस्या आगमाँ के निम्नलिखित वाक्यों पर आधारित है : तम्हा सलु नो निगायतरसि वा दूसन्तरसि वा मिति(सिवा कायसह वा रुझ्यसह वा गीयसह वा हसियमई वा थणियस वा दियसई या विलवियसः वा सूर्णमाण विहरेजा। -उत्त० १६:५ -टाटी, पर्दे,भीत आदि की ओट में रहकर निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मधुर ध्वनि. रदन. गीत. हास्य, विलास और विषय प्रेम के शब्दों को न सुने। यही वात 'उत्तराध्ययन सूटा' मैं अन्यत्र भी कही गयी है। कूपय राय गीय हसिय थणियकन्दिय। बम्भचेररओ थीर्ण सोयगेझ विवज्जए । -उत्त०१६:५ [२] ढाल गा० ५. स्वामीजी की इस गाथा का आधार आगम के निम्नलिखित वाक्य है: निग्रोथस्स खल इत्थीण कुञ्जन्तरसि वा दूसन्तरसि वा मिततरसि वा कुइयस वा रुइयस वा गीयसह वा हसियसदं वा थणियसई वा कन्दियसह वा विलवियसई वा सुणेमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसज्जा -उत्त० १६:५ -जो ब्रह्मचारी टाटी, परदे,भीत आदि की ओट में रहकर स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, विलास, क्रन्दन, विलापादि के शब्द सुनता है, उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है। वह अब्रह्मचर्य की आकांक्षा करने लगता है। ब्रह्मचर्य का पालन करू या नहीं, उसके मन में ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्य का भेद होता है। उन्माद और दीर्घकालिक रोगातक होते हैं और वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy