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________________ शील को नव वाड़ [४ ] ढाल गाथा १ का पूर्वाई : इसका आधार 'दशवैकालिक सूत्र' का निम्नलिखित श्लोक है : अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपहियं । इत्थीणं तं न निज्झाए काम राग विवडणं ॥ दश०८:५८ -ब्रह्मचारी स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यश, संस्थान-आकार, उनको मनोहर वाणी और चक्षु-विन्यास पर ध्यान न लगावे क्योंकि ये काम-राग को वृद्धि करने वाले हैं। [५] ढाल गाथा १ का उत्तरार्द्ध: । 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में कहा है का यो पङ्कपणयपासजाल भूयं UHS प्र ०४:२ -अब्रह्मचर्य पंक कीच जाल और पाश की तरह है। संभव है स्वामीजी की गाथा का आधार यही सूत्र वाक्य हो। 0 , [६ ] ढाल गाथा २ : स्वामीजी की यह गाथा आगम के निम्न लिखित श्लोक के आधार पर है स्वेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चु ॥ ... -उत्त ३२:२४...23 -जिस तरह रागातुर पतंग आलोक से मोहित हो अतृप्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करता है. उसी तरह रूप में तीव्र बुद्धि रखने वाला मनुष्य अकाल में ही मरण को प्राप्त होता है। [७] ढाल गाथा ३:55 ... 'प्रश्रव्याकरण' सत्र में कहा है: 5 E EFT. REE "अब्रह्मचर्य देव, मनुष्य, असुर सबका प्रार्थ्य है। यह स्त्री, पुरुष और नपुंसक का चिह्न है। ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक इन तीनों लोकों में इसका आधिपत्य है। यह चिरपरिचित है। अनादिकाल से जीव का पीछा कर रहा है। इसका अंत करना बड़ा ही कठिन है। ____ "मोह से मोहित मतिवाले अब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं। भवनपति, व्याणव्यंत्तर, ज्योतिषी और वैमानिक उसका सेवन करते हैं। मनुष्य, जलचर, थलचर, खेचर मोह से आसक्त-चित्त होते हैं। काम-भोगों में अति तृष्णा सहित हैं. काम भोग के लिये तृषातुर हैं. काम-भोगों की महती, बलवती तृष्णा से अभिभूत हैं। काम-भोगों में गृद्ध और अत्यन्त मूर्धित हैं। जैसे कोई कीचड़ में फंस जाता है वैसे अबह्मचर्य में फंसे रहते हैं। ये तामस भाव से मुक्त नहीं होते। परस्पर एक दूसरों का सेवन करते हुए मानो दर्शन और चारित्रमोहनीय कर्म का पिंजरा अपने लिये तैयार करते हैं।" स्वामीजी को गाथा संभवतः आगम के उपर्युक्त भावों पर अवस्थित है। श्री १-प्रश्न १:४ : अभं ... ": सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्ज ..." थोपरिसणपुंसवेयचिण्हं ... ... उड्ढणरय तिरियतिल्लोकपठाणं ... ." चिरपरिगयमणुगय दुस्त ... ... तं य पुण णिसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोहमोहिय मई ... ... मणुयगणा जलयर थलयरसहयरा य मोहपडिबद्ध चिता अवितण्हा कामभोग तिसिया तण्हाए बलवईए महईए सममिभूया गढिया य अइमच्छिया य अबभै उस्सण्णा तामसेण अणुम्मुक्का दसणचरित्तमोहस्स पंजर विव करेंति अण्णोण्ण सेवमाणा । Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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