SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शील की नब बाद प्रथम गाथा के प्रथम दो चरण प्रायः मिलते हैं । अन्तिम दो चरण भिन्न हैं। "दंभ कदाग्रह छोड़ने धरीये तिण सुं नेह रे" के स्थान में स्वामीजी की कृति में सीयल तूं सिव ख पानीये त्यांस रो कर नावें छेड़ रे" है। स्वामीजी की दूसरी गाथा नवीन है। जिन की तीसरी गाथा स्वामीजी की कृति में नहीं है। चौथी गाया धन्य शब्दों में है। १४२ छठी गाथा के "जानकरी ग्रुप रापिपट ही अतिरंग आणि रे" के स्थान में स्वामीजी की गाया में "तिण सीयस विश्व राजन ज्यू वेगी पांसों निरवांण रे" है। इसी तरह सातवीं गाथा के "कीधी तिण तरु पापती ए नव वाड़ि सुजांण रे" के स्थान में ८ वीं गाथा में "कीधी तिण विरख नें राखवा, नव बाढ़ दसमों कोट जांण रे" है । इस तरह स्वामीजी की कृति की ८ गाथाओं में से ४३ प्रायः जिनहर्णजी की कृति से मिलती हैं । ढोल - २ ८ श्री जिजी की दूसरी ढाल में ७ गायाएं और बारंभ में २ दोहे हैं। स्वामीजी की कृति में १० गाथाएं और दोहे हैं। स्वामीजी के घाटों दो पुष है। दस गाथाओं में चार मिलती हैं छः पृथ हैं। प्रथम गाथा के "जिण थी सिव सुप पांमीये सुंदर तनु सिणगार हो भवीयण" के स्थान में स्वामीजी की कृति में "जिण थी सि पांमीयें, तू बाड़ म खंडे लिगार हो । ब्रह्मचारी" है । तीसरी गाथा के "कुमुल किहां थी तेहनइ पामें दुप अघोर हो” के स्थान में स्वामीजी की कृति में "कुसल किहां भी रोने मारे घांटी मरोड़ हो" है । ढाल – ३ श्री जिनहर्षजी की कृति में २ दोहे और ८ गायाएं हैं और स्वामीजी की कृति में २ दोहे और १४ गाथाएँ | स्वामीजी के दोनों दोहे पृथक हैं । जिनहर्षजी के दोनों दोहे स्वामीजी की ढाल २ के ६ एवं ७ व दोहे के रूप में मिलते हैं। दूसरे दोहे के "आवे छतौ आल सिरि बीजी बाड़ बिलोक" के स्थान में स्वामीजी के दोहे को शब्द रचना इस प्रकार है-"आयें तो आज सिर, पले हुवे वरत पिन फोक स्वामीजी की १४ गाथाओं में से पहली, दूसरी और तीसरी तीन गाथाएं मिलती हैं। तीसरी गाथा कृतियों में क्रमश: इस प्रकार है : वांणी कोइल जेहवी रे वारण कुंभ उरोज । वाणी कोयल जेहवी रे, हाथ पांव रा करें वखांण । हंसगमणि कृसहरिकटी रे करयुग चरण सरोज रे प्रांणी ॥ ३॥ हंस गमणी कटी सींह समी रे, नाभि ते कमल समांण रे ॥३॥ ढाल - ४ श्री जिनहर्षजी की कृति में ६ गाथाएँ और २ दोहे हैं और स्वामीजी की कृति में १४ गाथाएं और ४ दोहे | स्वामीजी का तीसरा और चौथा दोहा जिनहर्षजी के प्रथम और द्वितीय दोहे से क्रमशः मिलते हैं। जिनहर्षजी के दूसरे दोहे के " इम जांणी रे प्रांणीया तजि आसण त्रियरंग" के स्थान में स्वामीजी के चौथे दोहे में "ज्यूं एकण आसण बेंसतां न रहें वरत सुरंग" है । T स्वामीजी की १४ गाथाओं में से सिर्फ दो पहली धौर दूसरी जिनहजी की रचना से मिलती हैं अन्य पृथक है मिलती गायाओं की शब्द-रचनाएँ इस प्रकार है : तीजी वाड़ि हिवे चित्त विचारौ नारि सहित बइसवौ निवारौ लाल । एक आसग काम दीपाये चौथा व्रत में दोष लगावेा ॥१॥ इस तो आसंगौ धाये आसंगे काया परसाये रे बाल । काया फरस विषै रस- जागे तेहथी अवगुण थाये आगे लाल ॥२॥ डाल -५ ८ 1 श्री जिनही की कृति में २ दोहे और स्वतंत्र है। दूसरा दोहा जिनहर्षजी के पहले दोहे गायाएं हैं और स्वामीजी की कृति में २ दोहे धीर २१ गाथाएं स्वामीजी का पहला दोहा से मिलता है । स्वामीजी की ढाल की ७ वीं और ८ वीं गाथाएं क्रमशः जिनहर्षजी की तीसरी ढाल की ५ वीं और ६ ठीं गाथाम्रों से मिलती हैं । १० "गाथा इस ढाल के दूसरे दोहे के समान है। अवशेष १८ गाथाओं में से छः मिलती-जुलती हैं। शेष भिन्न हैं। जिनहर्षजी की ढाल की ५ वीं गाथा स्वामीजी की दूसरी ढाल की चौथी गाथा से भाव में मिलती है । तीजी बाद हिं चित्त विचारो नारी सहित भासण निवारो लाल । एक आस बैंड कांम दीपें है, ते महाचारी में आछों नहीं है साल ॥१॥ एकण आसण बेठां आसंगो थावें, आसंगे काया फरसावें लाल । काया फरस्यां विषं रस जागें, इम करतां जाबक वरत भांगे लाल ॥२॥ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy