SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका, फिर बोली महाराज ! मैं याद कर रही है, कौन रेवती है। नगरी बडी है. यहाँ रेवती कई हैं।" 2. इस तरह नागला बड़े सोच-विचार के बाद जवाब देती है। अपना कुछ भी भेद न देती हुई मुनि का भेद लेती है। विचार के बाद उसने बताया-"मैं रेवती को जानती हूं। बड़ी नामी श्राविका थी। उसके बराबर धावक व्रतों में कोई मजबूत नहीं है। ब्रह्मचर्य-व्रत धारिणी, रात्रि को चौबिहार का त्याग और भी नाना प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान किये उसने।" मुनि ने कहा-"यह तो जानता हूँ, बड़ी पकी धाविका थी। अब वह जीवित है या नहीं?" नागला ने बताया-"वह अब जीवित नहीं है। उसे देवलोक प्राप्त हुए कई वर्ष हो गए।" - मुनि ने सुख की श्वास ली। न अब भाई रहा है, न माता । वह दोनों तरफ से आजाद है । मुनि ने कहा-"एक बात फिर पूछनी है। रेवती के लड़के की बहू थी, वह अब जीवित है या नहीं ?" नागला ने मन ही मन कहा-"पाई बात समझ में। ये मेरे लिए पात्र हैं। ये तो वे हैं" उसने थोड़ा क्रोध दिखाते हुए कहा"महाराज ! आप कैसी बाते करते हैं ? कभी रेवती जीवित है या नहीं, कभी नागला जीवित है या नहीं। क्या मतलब है आपको स्त्रियों से ? साधु पूछ सकता है-पाहार-पानी की जोगवाई कहाँ होगी ? लोगों में धर्म-ध्यान की रुचि कसी है ? सो तो नहीं, अमुक जीवित है या अमुक मर गई। मझे शक होता है, पापकी नियत पर। आपको ऐसी बातों से क्या प्रयोजन ?" या मनि ने सोचा कि बात मागे न बढ़ जाय और बोले- वह मेरी पत्नी है, इसीलिए मैंने पूछा है।" HEIR HTT. नागला बोली-"महाराज ! कसी अविचार पूर्ण बातें करते हैं ? न कभी सुना न देखा, कि जन साधु के भी पत्नी होती है !" मुनि बोले-"मरा नाम भावदेव है। पाज से बारह वर्ष पूर्व की वात है। मैं शादी करके प्राया ही था। मैंने अभी 'कंकण-डोरड्का बन्ध भी नहीं तोड़ा था। इसी समय मेरे बड़े भाई ने जो मनि थे, मझ सांसारिक बन्धनों से बचने का उपदेश दिया। मैं उसे टाल न सका: साध बन गया।ITTERISTRICT नागला बीच में ही पूछ बैठी, "तो क्या प्रापको जबरदस्ती साधु बना लिया गया ?" मुनि ने कहा-"नहीं, मेरी रजामन्दी थी। मैं भाई "अच्छा जब बारह वर्ष बित गये तो अब फिर क्या बात है ?" m "अब मैं नागला की खोज में हूँ।" 2. "नागला तन-मन से प्रापकी वाञ्छा नहीं करेगी, वह मेरी सहेली है। उसने रेवती की ठोकर खाई है। वहाँ तक न जाकर यहीं से लौट जाइये। भावदेव को भान नहीं रहा । वे बोल उठे : "तू जानती है दूसरों के मन की वात ? मैं जिस नागला को क्षण भर भी नहीं भूलता, अवश्य वह भी हरवक्त मेरे लिए कौवे उड़ाती होगी। भला, स्त्री के लिए पति के सिवाय और है ही क्या ?" पाप साधु नहीं हैं, मैं पक्की श्राविका ठहरी," "अच्छा चलती हूँ"-नागला बोली। नागला चिन्तातुर घर को चली। क्या किया जाय ? नाड़ी बिल्कुल धीमी पड़ चुकी है। प्राण जानेवाले हैं। नाम मात्र का साध वेष है। मैं क्या करूंगी, घर पा ही गये तो? वह उसी उधेड़दन में घर पहुंची। कुछ हल निकाला जाय। अपनी विश्वासपात्र पड़ोसिन के. पास गई। सारी बात कह सुनाई। सलाह-मशविरा कर, सारी योजना बनाकर दोनों चलीं उस बाग में, जहाँ मुनि ठहरे थे। "मुनि अपने घर की ओर रवाना होना ही चाहते थे कि इतने में नागला अपनी सहेली के साथ मा पहुंची। बोली-"हम सामायिक कर रही हैं।" Nire मावदेव ने सोचा- "इनके देखते कैसे जाऊंगा?" उन्हें सामायिक न करने को कहा। नागला बोली-"हम दो है। यहां रहना कल्पता है।" और दोनों ने सामायिक पचक्ख ली। "प्रब क्या किया जाय? इतनी देर और रुकना पड़ेगा।" भावदेव विचार में पड़ गया। इतने में एक बच्चा भागा-भागा प्राया। और बोला मां! ऐ मा !! और गोद में आने लगा। ना बेटा ! मेरे सामायिक माता ने कहा InsidhA Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy