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________________ १३४ शील की नव-बाड़ भवदेव और भावदेव दोनों एक सम्पन्न परिवार की सन्तान थे। वह परिवार सम्पन्न तो था ही, साथ ही साथ धर्मप्रिय भी था। मातापिता सभी धर्मप्रिय थे। दादी तो उन सबसे दो कदम आगे थी। भवदेव धर्माभिरुचि की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। उसने दीक्षा ले ली। संन्यासी जीवन बिताने लगा। एक दिन वह अपने गुरु से बोला-"मैं अपने गांव जाना चाहता हूं।" गुरु ने पूछा "क्यों ?" प्रत्युत्तर मिला "मैं अपना कल्याण तो करता ही हूँ। चाहता हूं, मेरा भाई भी स्वकल्याण करे।" गुरु ने प्राज्ञा देते हुए कहा-"अपने संयम का खयाल रखना।" भवदेव गांव आये। इच्छा लेकर पाये-"मैं जैसा आत्मिक सुख पा रहा हूँ, वैसा ही मेरा भाई भी पाये।" गांव पाने पर मालूम हुमा कि भाई आज ही शादी करके आया है। भावदेव बड़ी खुशी से भ्रात-मुनि के दर्शन करने पाया। मुनि ने पूछा-"शादी कर ली।" भावदेव बोला-"हाँ।" मुनि ने कहा- “फंस गया जाल में । बंध गया बंधन में । अब भी छूट, सांसारिक सुखों में कुछ नहीं है। अपना कल्याण कर, प्रात्म-रमण कर।" भवदेव ने संसार की अनित्यता बतलाई। कुछ वैराग्य ने और कुछ बड़े भाई के संकोच ने 'हो' भरा दी। माता ने सहर्ण अनुमति दे दी। नव विवाहिता बहू से माता ने अनुमति के लिए कहा। उसने भी हाँ भरते हये कहा-"यदि वे दीक्षा ले तो मेरी सहर्ष प्राज्ञा है। मेरा विचार दीक्षा का नहीं है। मैं धाविका-धर्म का पालन करूंगी। आप उन्हें देख लेना। बाद में साधुपन न पला तो घर में जगह नहीं है। मुझसे उनका कोई सरोकार नही रहेगा।" माता बोली-"बहू, ऐसे क्यों बोलती हो ? एक भाई साधु है ही; वह अच्छी तरह साधुपन पालता है। यह भी पाल लेगा।" बहू ने कहा-"पाल लेंगे तो ठीक ही है।" . भावदेव दीक्षित हो गया। दोनों भ्रातृ-मुनि गुरु के पास पाये। भावदेव साधु-जीवन बिताने लगे। किसी तरह की गलती नहीं करते। भाई का संकोच था। पर साधुपन का रंग उनकी रग-रग में जमा नहीं, रमा नहीं। वे सोचते-"मैं कहाँ आ गया, कब गांव जाऊँगा।" विकार उत्पन्न हुमा, पर भाई का संकोच था। प्रतिज्ञा की-भाई के जीते-जी घर नहीं जाऊंगा, साघु ही रहूंगा। एक दिन एक ज्योतिषी आया। भावदेव पूछ बैठा-"मुझे भाई का कितना सुख है ?" ज्योतिषी ने बताया-"बहुत वर्ष बाकी है। भावदेव के मन में पाया यहाँ तो एक-एक क्षण वर्ष की तरह बीत रहे हैं और उधर ज्योतिषी कहता है-बहुत वर्ष बाकी हैं । क्या किया जाय ? कब भाई मरे, कब गांव जाऊँ ? उनके रहते भला कैसे जाऊँ? पूरे बारह वर्ष बीत गये। भाई को बीमारी ने आ घेरा; मुनि भवदेव स्वर्गगामी हो गये। अब भावदेव को रोकनेवाला कौन था? शर्म किस की थी ? बहुत दिनों की पाशा पूर्ण हुई और उसने सुख की सांस ली। सुबह होने को था। लोग मृत शरीर का जलूस निकालने के कार्यक्रम में व्यस्त थे। भावदेव अपनी योजना बना रहा था। उसने नवीन वस्त्रों की गठरी बांधी। फटे पुराने धर्मोपकरणों को छोड़ा; पर साधु-वेष नहीं छोड़ा। सूर्योदय से पूर्व ही उसने यात्रा का श्री गणेश कर ग्राम का रास्ता लिया। भावदेव विचारों में लीन, चलता जाता था। चलते-चलते ग्राम पाया। "सीधा घर कैसे जाऊं?" यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठता। पाखिर गांव के बाहर एक रमणीक बाग में उसने डेरा डाल दिया। ..संयोग ऐसा मिला, कि नागला (इनकी पत्नी) अपनी सहेलियों के साथ कहीं जा रही थी। उसने मुनि को देखा और उसे बड़ा हर्ष हमा। "धन्य भाग्य जो माज सन्त-दर्शन हुए।" उसने दर्शन करने के लिये सहेलियों से चलने को कहा, पर उन्होंने टाल दिया। नागला अकेली ही दर्शन को चली। दर्शन कर उसने पूरी तीन दफे प्रदक्षिणा दी तथा सुखसाता पूछी। उसके मन में पाया-"मुनि अकेले कसे ? अकेला रहना साघु को नहीं कल्पता। गुरु की प्राज्ञा होगी। साध अकेली स्त्री से बात करते ही नहीं। दूर से ही कह देते हैं—'हमे कल्पता नहीं है।' इन्होंने तो कुछ कहा नहीं।". ... इधर मुनि ने सोचा-"यह औरत पाकर जाती है, क्यों न इसी से सब बात पूछी जाय ? " मुनि ने प्रावाज दी। जवाब मिला"महाराज ! मैं अकेली हूँ।" मुनि ने कहा-"ऐसी क्या बात है, तुम दरवाजे के बाहर खड़ी हो, मैं भीतर हूँ।" ... मुनि ने कहा-"तुम्हारे इस सुग्राम में बड़े-बड़े श्रावक थे। एक प्रसिद्ध श्राविका भी थी, जिसका नाम था रेवती, भावदेव की माता। वह अब जीवित है या नहीं?" नागला ने सोचा-'यह सब नाम तो मेरे परिवार के ही हैं। जवाब मुझे सोच-विचार कर देना चाहिए।" असमंजस में पड़ी हुई Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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