SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शील की नव बाड़ १२४ (२२) तू ही तेरा मित्र है। बाहर क्यों मित्र की खोज करता है ? हे पुरुष ! अपनी प्रात्मा को ही वश में कर। ऐसा करने से ती दुःखों से मुक्त होगा'। आगम में कहा है-"जिसकी प्रात्मा इस प्रकार दृढ़ होती है, वह देह को त्यज देता है, पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ता। इति (विषय-सुख) ऐसे दृढ़ धर्मी पुरुष को उसी तरह विचलित नहीं कर सकतीं, जिस तरह महावायु सुदर्शन गिरि को ।" "जिस तरह नौका जल को पार कर किनारे लगती है, उसी तरह जिसकी अन्तर पात्मा भावनारूपी योग-चिन्तन से विशुद्ध निर्मल होती है, वह संसार-समद को तिर कर--सर्व दुःखों को पार कर, परम सुख को प्राप्त करता है। क्षुर अपने अन्त पर-धार पर चलता है और चक्का भी-पहिया भी अपने अन्त-किनारों पर चलता है। धीर पुरुष भी अन्त का सेवन करते हैं-एकान्त निश्चित सत्यों पर जीवन को स्थिर करते हैं और इसी संसार का बार-बार जन्म-मरण का अन्त करते हैं ।" म प नि २९-ब्रह्मचर्य और निरन्तर संघर्ष संत टॉलस्टॉय ने कहा है : “जो पतन से बचा हुआ है, उसे चाहिए कि इसी तरह बचे रहने के लिए वह अपनी तमाम शक्तियों का उपयोग करे । क्योंकि गिर जाने पर उठना सैकड़ों नहीं, हजारों गुना कठिन हो जायगा। संयम का पालन करना अविवाहित और विवाहित-दोनों के लिए श्रेयस्कर है। ____ "मनुष्य का कर्तव्य है कि संयम की आवश्यकता को समझ ले। वह समझ ले कि विवेकशील मनुष्य के लिए विकारों से झगड़ना अप्राकृतिक नहीं, बल्कि उसके जीवन का पहला नियम है । मनुष्य केवल पशु नहीं, एक विवेकशील प्राणी है। __"प्रकृति ने मनुष्य के अन्दर वैषयिकता और अन्य पाशविक वृत्तियों के साथ-साथ ब्रह्मचर्य और पवित्रता की पोषक आध्यात्मिक वृत्ति भी दी है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह उसकी रक्षा और संवर्धन करे। "सत्य और सत् के लिए सत् का प्रयत्न करते रहना। अपनी पवित्रता की रक्षा में सारी शक्ति लगा देना। प्रलोभनों के साथ खब झगड़ना, किसी हालत में हिम्मत न हारना। लगाम को कभी ढीली न करना। “मेरा तो उपदेश यही है और इस पर, मैं खूब जोर दूँगा कि अपने जीवन के ध्येय को समझो। याद रक्खो कि शारीरिक विषय-मुख नहीं बल्कि ईश्वर के आदेशों का पालन मनुष्य के जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य है । विलासयुक्त नहीं, प्राध्यात्मिक जीवन व्यतीत करो। "ब्रह्मचर्य वह आदर्श है, जिसके लिए प्रत्येक मनुष्य को हर हालत में और हर समय प्रयत्न करना चाहिए। जितना ही तुम उसके नजदीक जानोगे उतना ही अधिक परमात्मा की दृष्टि में प्यारे होगे और अपना अधिक कल्याण करोगे। विलासी बन कर नहीं, बल्कि पवित्रतायक्त जीवन व्यतीत करके ही मनुष्य परमात्मा की अधिक सेवा कर सकता है | YATRA STATE या १-आचाराङ्ग ३।३.११७-८: पुरिसा! तुममेव तुम मितं, कि बहिया मित्तमिच्छसी ? पुरिसा! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि ॥ २-दशवैकालिक चू० १.१७:। जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज्जदेहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पइलंति इंदिया, उवितवाया व मुदंसणं गिरि ॥ ३-सूत्रकृताङ्ग १, १५ : ६,१४-१५ : भावणा जोगसद्धप्पा, जले नावा व आहिया। नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउई ॥ से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अन्तए। अन्तेण खुरो वहई, चक्कं अन्तेण लोट्टई ॥ अन्ताणी धीरा सेवन्ति, तेण अन्तकरा इह ॥ - ४-स्त्री और पुरुष पृ० १५०-१५३ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy