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________________ १२० शील की नय भाष स्थनाङ्ग सूत्र में बारह प्रकार के मरण का उल्लेख है- Nirmirmire (१) वलन्मरण-परीषह मादि की बाधा के कारण संयम से भ्रष्ट होकर मरना। (२) वशात मरण-स्निग्ध दीपक-कलिका के अवलोकन में प्रासक्त पतंग प्रादि के मरण की तरह, इन्द्रियों के पक्ष में होकर मरमा। (३) निदान मरण-समृद्धि और भोग आदि की कामना करते हुए मरना। (४) तद्भव मरण-जिस भव में हो, उसी भव की प्रायु का बन्ध करके मरना। 2 (५) गिरिपतन मरण-पर्वत से गिरकर मरना TEEN ANSAR (६) तरुपतन मरण-वृक्ष से गिर कर मरना। ... (७) जलप्रवेश मरण-जल में प्रविष्ट होकर मरना। in E n ts (८) अग्निप्रवेश मरण-अग्नि में प्रवेश कर मरना। (6) विषभक्षण मरण—विष खाकर मरना। hi (१०) शस्त्रावपाटन मरण-छुरिकादि शस्त्र से अपने शरीर को विदीर्ण कर मरना । REAPHARNation fire (११) वहायस मरण-वृक्ष की शाखा से बन्धकर-लटक कर मरना। HER MAN. (१२) गृध्रस्कृष्ट मरण-गृद्धों द्वारा स्पष्ट होकर मरना । TRE mpire Tom इन ऊपर के मरणों के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान महावीर ने कभी इनकी प्रशंसा नहीं की, कीर्ति नहीं की, और अनुमति नहीं दी। कारण होने पर केवल अन्तिम दो को निवारित नहीं किया। कारण का खुलासा करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि 'शीलरक्षणादी' अर्थात् शील-रक्षण प्रादि प्रयोजन के लिए अन्तिम दो मरण निवारित नहीं है। एक प्राचीन गाथा में इन दोनों मरणों को अनुज्ञात कहा है। उपर्युक्त विवेचन से फलित है कि जैन धर्म के अनुसार संयम से भ्रष्ट होकर मरना, इद्रियों के वश होकर मरना, गह्य है और उन्हें बालमरण कहा है। वैसे ही संयम की रक्षा के लिए वहायस, गृद्धस्पृष्ट मरण की अनुज्ञा भी दी है। । यह यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैन साध्वियां अपने पास विहार के समय रस्सियाँ रखती हैं और शील विषयक उपसर्ग के उत्पन्न होने पर उनके द्वारा फाँसी खाकर शील-रक्षा कर सकती हैं। Pos m २ ८-ब्रह्मचर्य और भावनाएँ Parihari R om जैन धर्म में ऐसी भावनाएं-अनुपेक्षाएं-दृष्टियों का भी वर्णन मिलता है, जिनका बार-बार चिन्तन करने से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य में दृढ़ रह सकता है। उदाहरणस्वरूप : ...(१) त्यागे हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करना वमन की हुई वस्तु को पीना है । इससे तो मरना भला | दो मरगाइ समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथागं णो णिञ्च वरिणायाइ णो णिच्च कित्तियाई णो णिच्चं घुझ्याइणो गि पसल्याइणो गिचं अभगुन्नायाई भवंति, कारणणं पुण अप्पडिकुटाइ तं जहा-हाणसे चेव गिद्धपिठे चेव । तर २-ठाणाङ्ग सू० १०२ की टीका में उद्धृत गदादिभक्खणं गद्धपट्टमुब्बंधणादि वेहासं। एते दोन्निऽवि मरणा कारणजाए.अणुन्नाया ॥ TRA : .३-उत्तराध्ययन २२ : ४२-४३ range s tants form ation injana धिरत्यु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। ने पाली वत इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ।। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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