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________________ भूमिका १०६ सहज या स्वाभाविक हो जाती है और फिर वह अनायास आ पड़ी मालूम होती है। उदाहरण के लिए, मुझे लेख लिखने की आदत है, इसलिए कई संपादक मुझसे लेखों की मांग किया करते। अब एक तरह से देखें तो यह कहा जा सकता है कि 'लेख लिखने का काम मुझ पर सहज ही आ पड़ता है। लेकिन हर समय वह धर्म के रूप में प्रा पड़ता है, ऐसा कहना कठिन है। लेख लिखने का धर्म आ पड़ा है, ऐसा तो कुछ अंश में भी तभी कहा जायगा, जब उस लेख के प्रकाशन की जिम्मेदारी मुझ पर हो अथवा कोई विचार मुझे इतना महत्त्वपूर्ण लगे कि उसे जनता को समझाना विवेक-बुद्धि से मुझे जरूरी मालूम होता हो। हम जानते हैं कि विवेक-बुद्धि का उपयोग करने में भी कभी-कभी आत्म-वंचना होती है। फिर भी यह तो माना ही जायगा कि यथासंभव हमने विवेक-बुद्धि का उपयोग किया है। सारांश यह है कि अनायास पा पड़नेवाला प्रत्येक कर्म, धर्म नहीं ठहरता; और इसलिए यह बचाव नहीं किया जा सकता कि कोई कर्म अनायास आ पड़ा, इसलिए किया गया। गीता में यह अवश्य कहा गया है कि 'सहजं कर्म कौन्तेय, सदोषमपि न त्यजेत् ।' लेकिन जो धर्म न हो, उसे गीता ने कर्म ही नहीं माना है। वह विकर्म है, और इसलिए अपकर्म है। उसके लिए अनायास प्रा पड़ने का बहाना नहीं किया जा सकता। फिर गीता में 'सहज' का अर्थ 'अनायास मा पड़नेवाला नहीं, बल्कि सह-ज-साथ उत्पन्न हुमा-स्वाभाविक, प्रकृति-धर्म के अनुसार है। कोई कर्म सहज हो और कर्तव्यरूप में आ पड़ा हो, तो भी वह दोषयुक्त होने पर भी नहीं छोड़ा जा सकता। "पाप यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी कठिन है। इसका अर्थ यही है कि हमारे जमाने में करोड़ों मनुष्यों के लिए ब्रह्मचर्य असंभव-सा है। एकाध के लिए वह स्वाभाविक हो सकता है ; और अति-पुरुषार्थी के लिए प्रयत्न-साध्य है । अत: करोड़ों के लिए तो ऐसा ही धर्म बताना होगा, जिससे वे भोग में मर्यादा का पालन कर सकें, अति भोग की तरफ न बह जायं और मर्यादा-पालन करनेवालों की दिनोंदिन संयम की ओर प्रगति हो।"""""मुझे लगता है कि ब्रह्मचर्य की साधना के मार्ग का और मर्यादा के नियमों का इस तरह विचार होना चाहिए। .. - "इस बारे में हम सिर्फ कल्पना के घोड़े दौड़ाना चाहें, तब तो कहीं के कहीं पहुंच सकते हैं। यदि ऐसा कहें कि जो स्त्री के सहज या साधारण स्पर्श से भागे, वह ब्रह्मचारी नहीं, तो जो एकान्त-वास से या बलात्कारपूर्वक संभोग करना चाहनेवाले से डरकर भागे, उसे भी ब्रह्मचारी कसे कहा जाय ? और शंकर की कथा में बताया गया है वैसे क्रोध से कामदेव को जला देनेवाला भी ब्रह्मचारी कैसा ? ब्रह्मचारी तो भागवत में नारायण की कथा में बताये गये मनुष्य को कहा जा सकता है। यानी जो अप्सराओं से कह सके कि "तुम भले ही नाचो परन्तु मेरे तप के प्रभाव से मैं या तुम दोनों में से किसी में भी विकार पैदा नहीं होगा।" विकारी वातावरण में स्वयं तो निर्विकार रहे ही, पर जो विकारी के विकार को भी शान्त कर दे, वही सच्चा ब्रह्मचर्य है । ऐसे ब्रह्मचर्य को साध्य मानें, तो उसकी साधना क्या है ? इसमें मुझे कोई शंका नहीं कि वह साधना अनावश्यक सामान्य स्पर्श करते रहना या स्त्री-पुरुष के साथ एकान्त-वास के प्रयोग करते रहना तो हो ही नहीं सकती। मुझे तो लगता है कि जिस स्पर्श की कोई जरूरत ही नहीं, ऐसा हर तरह का स्पर्श त्याज्य ही माना जाना चाहिए । न केवल स्त्री या पुरुष का, न केवल प्राणियों का, बल्कि जड़ पदार्थों का भी ऐसा स्पर्श त्याज्य है। स्पर्शेन्द्रिय सारी त्वचा पर फैली हुई है। वह चाहे जिस जगह से प्रार चाहे जिसके स्पर्श से विकार पैदा कर सकती है । भोग में उसकी सीमा अवश्य है। जहाँ जड़ या चेतन-किसी का भी लिपटकर स्पर्श करने की इच्छा होती है, वहाँ सूक्ष्म कामोपभोग है। इस तरह की स्पर्शच्छा न हो और यदि हो तो उसके प्रति मन निर्विकार रहे-ऐसी शक्ति और दृष्टि प्राप्त करना ही ब्रह्मचर्य की साधना है। यह सच है कि इसमें अन्त में भागने की आवश्यकता नहीं रहेगी; लेकिन प्रारम्भ में या अन्त में भी लिपटने की, स्पर्श को खोजने की या उसकी आदत डालने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। सूक्ष्म स्पर्श अनायास नित्य के जीवन में होते ही रहते हैं। आदत के लिए, परीक्षा के लिए उतना स्पर्श काफी है। जिस प्रकार त्वचा को जीतने के लिए सर्दी या धूप में बैठना, पंचाग्नि में तपना, काटों पर सोना आदि साधना जड़ और तामसी है, उसी प्रकार इन स्पर्शों के सेवन को साधना कहें तो वह रसिक और राजसी साधना है। इस रास्ते में गिरे तो बहुत हैं, परन्तु पार कौन लगे हैं, यह तो प्रभ ही जाने। "इस बारे में गांधीजी का अनुकरण करने का मोह छोड़ देना चाहिये। गान्धीजी की तो सब मागों में पराकाष्ठा होती है। उनके त्याग, दीर्घश्रम और व्रत-पालन का अनुकरण करके उन्हें कोई अपना जीवन-धर्म नहीं बनाता, लेकिन उनकी संगीत की रुचि, स्त्रियों के साथ निःसंकोच व्यवहार और कुछ सूक्ष्म सुघड़ता की आदतों का अनुकरण करने का मोह होता है। परन्तु गान्धीजी को जिस बात में जिस क्षण अपनी भूल मालम हो जाती है, उसमें से उसी क्षण पीछे हटने और सारे जगत के सामने अपना अपराध स्वीकार करके माफी मांगने में उन्हें कभी संकोच नहीं Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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