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________________ शील की नव बाद "सच पूछा जाय तो स्त्री-पुरुष के बीच की जो मर्यादा है, उसका पालन स्त्री स्त्री में या पुरुष पुरुष में करना जरूरी नहीं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । स्त्रियां स्त्रियों के साथ और पुरुष पुरुषों के साथ जान-बूझ कर श्रावश्यकता से अधिक स्पर्शादि करें तो वह दोष ही माना जायगा। यानी स्त्री-पुरुष के बीच जो मर्यादाएँ बताई गई हैं, वे दो विभिन्न जातियों के कारण ही नहीं बताई गई हैं। बात इतनी ही है कि दो विभिन्न जातियों के लिए उनका ज्यादा स्पष्टीकरण किया गया है— उन पर ज्यादा जोर दिया गया है। "गांधीजी कहते हैं— "जो ब्रह्मचर्य स्त्री को देखते ही डर जाय, उसके स्पर्श से सौ श्रावश्यकता होती है । लेकिन अगर वह स्वयं साध्य बन जाय तो वह ब्रह्मचर्य नहीं । मिट्टी का स्पर्श एक-सा होना चाहिए ।" १०८ कोस दूर रहे, वह ब्रह्मचर्य नहीं। साधना में उसकी ब्रह्मचारी के लिए स्त्री का, पुरुष का, पत्थर का, "इस भाषा को आवश्यक अध्याहारों के साथ समझें, तो यह मुझे ठीक मालूम होती है । अध्याहार ये हैं: "जो ब्रह्मचर्य धर्म पैदा हो जाने पर भी स्त्री को देखते ही डर जाय." तथा "विवेक दृष्टि रखकर ब्रह्मचारी के लिए स्त्री का " जिस तरह हम गीताजी के सम दृष्टिवाले श्लोकों में इन शब्दों को अध्याहार के रूप में समझते हैं, उसी तरह यहां भी समझना चाहिए। यहाँ जैसे समदृष्टि का अर्थ यह नहीं होता है कि गाय की तरह ब्राह्मण को भी बिनौले और घास खिलाया जाय, या ब्राह्मण की तरह गाय के लिए भी श्रासन बिछाया जाय बल्कि यह होता है कि हर प्राणी के प्रति समान वृत्ति रखते हुए भी हरएक की विवेकयुक्त सेवा करनी चाहिए, वैसे ही यहाँ भी हरएक का समान वृत्ति से परन्तु केवल विवेकयुक्त स्पर्श किया जाय। दो वर्ष की बाला और २५ वर्ष की युवती के स्पर्श के प्रति ब्रह्मचारी की समान वृत्ति 'चूम होनी चाहिए। फिर भी दो वर्ष की बाला को वह गोद में बैठाये, उसके साथ बालोचित खेल खेले और श्रादत होने के कारण कभी-कभी उसे भी ले, तो वह निर्दोष माना जायगा। लेकिन २५ वर्ष की युवती के साथ वह यह सब नहीं करेगा — नहीं कर सकता । अर्थात् संकट का कारण पैदा किए बिना नहीं करेगा और उसे चूम लेने की तो संकट में भी कल्पना नहीं की जा सकती। यह भेद किस लिए इसका कारण यह है कि दोनों के बारे में एक-सा निर्विकारी होने पर भी किसके साथ क्या वर्ताव उचित है, यह उसकी माँ जानती है, मन जानता है और बुद्धि जानती है । यही उसका विवेक है । ; 2 कोई मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी हो, अपनी निर्विकारी अवस्था के बारे में उसके मन में जरा भी शंका न हो, वह छाती ठोक कर यह भी कह सके कि कैसी भी परिस्थिति में उसके मन में विकार पैदा नहीं होगा, फिर भी यदि वह मनुष्य समाज में साधारण जनता के लिए सदाचार के को नियम श्रावश्यक मालूम हों उनकी मर्यादा में रहे, तो क्या इसे उसके ब्रह्मचर्य का दोष माना जायगा ? और यदि ऐसे नियम पालने से वह अधूरा ब्रह्मचारी माना जाय तो इससे क्या ? क्योंकि वह कितना निर्विकार है, इसकी अपने संतोष के लिए परीक्षा करने या जगत के सामने यह सिद्ध कर दिखाने की उसकी जिम्मेदारी – पैदा हुम्रा धर्म नहीं है । उसकी जिम्मेदारी या धर्म तो हर बात में अपना श्राचरण ऐसा रखने की है, जिसका यदि अविवेकी पुरुष अनुकरण करे तो भी उससे समाज में दोषयुक्त आचरण का निर्माण न हो उसका अनुकरण करने से समाज में रसिक स्त्री-पुरुषों की मनोदशा को पोषण न मिले। बल्कि संयमी स्त्री-पुरुषों की मनोदशा का निर्माण हो और उसे पोषण मिले। ; 1 " किन्हीं मनुष्यों में बड़ी-बड़ी संख्याओं का मुंह से गुणाकार कर देने की शक्ति होती है। यह उसकी विशेष सिद्धि मानी जायगी। फिर भी यदि वह शिक्षक बन जाय, तो उसे बालकों को संख्यायें लिखकर और एक-एक अंक लेकर गुणा की रीति इस तरह सिखानी होगी, मानो उसके पास ऐसी कोई सिद्धि है ही नहीं। यदि ऐसी सिद्धि प्राप्त करने की कोई विशेष रीति हो तो, वह बालकों को बतानी चाहिए । यदि वह केवल जन्मसिद्ध शक्ति हो, तो किसी समय भले ही वह उसका उपयोग करे। लेकिन इससे गुणाकार करने की गणित की पद्धति का निषेध नहीं किया जा सकता, और बालकों को सिखाने के लिए तो वह उसी पद्धति का उपयोग कर सकता है। उसी तरह जो दृढ़ ब्रह्ममहाक चारी हो, उसे ऐसे नियमों का शोधन व पालन करना चाहिए, जो समाज के प्रयत्नशील साधकों श्रोर भोगियों के लिए ब्रह्मचर्य के मार्ग पर चलने में सहायक सिद्ध हों। मैं इसी दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार किया करता हूं । "गांधीजी का एक दूसरा वाक्य यह है-"स्त्री के स्पर्श के मौके ढूंढे बिना बनायास ही स्त्री का स्पर्श करने का मौका था पड़े, तो ब्रह्मचारी उस स्पर्श से भागेगा नहीं।" इस वाक्य में भी 'कर्तव्य की दृष्टि से' 'धर्म समझ कर जैसे शब्द जोड़ देने चाहिए, क्योंकि यह निश्चय करना कठिन है कि क्या अनायास श्रा पड़ा है और क्या अनायास श्रा पड़ा मान लिया गया है। किसी क्रिया को करने की आदत डालने से वह Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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