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________________ भूमिका :१०३ ६-वह पूर्व क्रीड़ा का स्मरण न करे। ७ वह विषयवर्द्धक गरिष्ट पाहार का वर्जन करे . . -वह प्रति माहार न करे ६-वह शरीर-विभूषा और शृंगार को दूर रखे ६-जो शरीर को तो वश में रखता हुअा जान पड़ता है पर मन में विकार का पोषण करता, वह मूढ मिथ्याचारी है ।... जहाँ मन होता है वहाँ शरीर अन्त में घसिटाए बिना नहीं रहता'। ७-दूध का आहार ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नकारक है, इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं है। मेरी अपनी राय यह है कि जो अपने विकारों को शान्त करना चाहता हो, उसे घीदूध का इस्तमाल थाहा हा . दूध का इस्तेमाल थोड़ा ही करना चाहिए...""विकारोतंजक वस्तुएं खाने-पीनेवाले को तो ब्रह्मचर्य निभा सकने की प्राशा ही न रखनी चाहिए। ब्रह्मचारी को मिर्च-मसाले जैसी गरमी और उत्तेजना पैदा करनेवाले और मिठाइयां, तली-भुनी चीजों जैसे पाचन में भारी पड़नेवाले पदार्थों से परहेज करना चाहिए। -मित पाहारी बनिए, सदा थोड़ी भूख रहते ही चौके पर से उठ जाइए । ब्रह्मचारी मित आहारी नहीं किन्तु अल्पाहारी होना चाहिए। है-पुरुप के पागे अपनी देह की सुन्दरता दिखाना क्या उसे पसन्द होगा? 0 -पहला काम है ब्रह्मचर्य की आवश्यकता को समझ लेना। दूसरा काम है इन्द्रियों को क्रमश: वश में लाना। ब्रह्मचारी को ( क ) अपनी जीभ को तो वश में लाना. ही चाहिए। . उसे जीने के लिए खाना चाहिए-रसना-सुख के लिए नहीं, (ख) अाँख से वही चीजें देखनी चाहिए जो शुद्ध निष्पाप हों, गन्दी चीजोंकी अोर से उसे अपनी आँखें बन्द कर लेनी चाहिए। 2 . निगाह निची कर के चलना-उसे इधर-उधर नचाते न रहना शिष्ट संस्कारवान होने की पहिचान है (ग) ब्रह्मचारी को अश्लील बातें सुनने और (घ) नाक-से तीव्र उत्तंजक गंध सूंघने से भी परहेज रखना होगा। (ङ) अपने हाथपरों को किसी-न-किसी अच्छे काम में लगाये | ...कान से विकारी बातें सुनना, आंख से विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु का स्वाद लेना, यी हाथ से विकारों को उभारनेवाली चीज को सुना और फिर भी जननेन्द्रिय रोकने का इरादा रखना तो पाग में हाथ . डाल कर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है। RSim ... पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से दूर रहे 1 B irt h malini A n ti -5 1 E -ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ. ८ २-आत्मकथा ३.८ ३-अनीति की राह पर पृ० १३६ ४-वही पृ०५५ .५-वही पृ० ११० र N E ७-अनीति की राह पर पृ० ७२. ८-ब्रह्मचर्य (५० भा०) पृ०७ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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