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________________ भूमिका १३ ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानी जानेवाली बाड़ को मैंने हमेशा के लिए आवश्यक नहीं माना है। जिसे किसी बाह्य रक्षा की जरूरत है, वह पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं। इसके विपरीत, जो बाड़ को तोड़ने के ढोंग से प्रलोभनों की खोज में रहता है, वह ब्रह्मचारी नहीं, किन्तु मिथ्याचारी है। ऐसे निर्भय ब्रह्मचर्य का पालन कसे हो ? मेरे पास इसका कोई अचूक उपाय नहीं, क्योंकि मैं पूर्ण दशा को नहीं पहुंचा हूं। पर मैने अपने लिए जिस वस्तु को अावश्यक माना है, वह यह है : विचारों को खाली न रहने देने की खातिर निरंतर उन्हें शुभ चिन्तन में लगाये रहना चाहिए। रामनाम का इकतारा तो चौबीसों घंटे, सोते हुए भी, श्वास की तरह स्वाभाविक रीति से. चलता रहना चाहिए। वाचन हो तो शुभ, और विचार किया जाय, तो अपने पारमायिक कार्य का। विवाहितों को एक-दूसरे के साथ एकान्त-सेवन नहीं करना चाहिए। एक कोठरी में एक चारपाई पर नहीं सोना चाहिए। यदि एक दूसरे को देखने से विकार पैदा होता हो तो, अलग-अलग रहना चाहिए। यदि साथ-साथ बातें करने में विकार पैदा होता हो, तो बातें नहीं करनी चाहिए। जो मनुष्य कान से बीभत्स या अश्लील बातें सुनने में रस लेते हैं, अाँख से स्त्री की तरफ देखने में रस लेते हैं, वे ब्रह्मचर्य का भंग करते अनेक.."ब्रह्मचर्य-पालन में हताश हो जाते हैं, इसका कारण यह है कि वे श्रवण, दर्शन, वाचन, भाषण आदि की मर्यादा नहीं जानते ।..."जो पुरुप स्त्री के चाहे जिस अङ्ग का सविकार स्पर्श करता है, उसने ब्रह्मचर्य का भङ्ग किया है, यह समझना चाहिए। जो ऊपरी मर्यादा का ठीक-ठीक पालन करता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सुलभ हो जाता है । पालसी मनुष्य कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता। वीर्य-संग्रह करनेवाले में एक अमोघ-शक्ति पैदा होती है। उसे अपने शरीर और मन को निरंतर कार्यरत रखना ही चाहिए। हर एक साधक को ऐसा सेवा कार्य खोज लेना चाहिए कि जिससे उसे विषय-सेवन करने के लिए रंचमात्र भी समय न मिले। साधक को अपने आहार पर पूरा काबू रखना चाहिए। वह जो कुछ खाये, वह केवल औषधिरूप में शरीर-रक्षा के लिए, स्वाद के लिए कदापि नहीं। इसलिए मादक पदार्थ, मसाले वगैरह उसे खाना ही नहीं चाहिए। ब्रह्मचारी मिताहारी नहीं, किन्तु अल्पाहारी होना। चाहिए । सब अपनी मर्यादा को बांध लें। 3. उपवासादि के लिए ब्रह्मचर्य-पालन में अवश्य स्थान है। क्षणिक रस के लिए मैं क्यों तेजहीन होऊँ ? जिस वीर्य में प्रजोत्पत्ति की शक्ति भरी हुई है, उसका पतन क्यों होने दूं ?......" इस विचार का मनन यदि साधक नित्य करे, और रोज ईश्वर-कृपा की याचना करे, तो संभवतः वह इस जन्म में ही वीर्य पर काबू प्राप्त कर ब्रह्मचारी बन सकता है' । (२८-१०-३६) १४–पर मेरा ब्रह्मचर्य उसका पालन करने के लिए बने हुए कट्टर नियमों के बारे में कुछ नहीं जानता। मैंने तो जब जैसी जरूरत देखी, उसके अनुसार नियम बना लिये। लेकिन मेरा यह विश्वास कभी नहीं रहा कि ब्रह्मचर्य का उपर्युक्त रूप में पालन करने के लिए स्त्रियों के किसी भी तरह के संसर्ग से बिल्कुल बचना चाहिए। जो संयम अपने विपरीत वर्ग के सब संसर्गों से, फिर वह कितना ही निर्दोष क्यों न हो, बचने के लिए कहे, वह बलात् संयम है, जिसका कोई महत्त्व नहीं। इसलिए सेवा या काम-काज के लिए स्वाभाविक संसर्गों पर कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं रहा । (४-११-'३६) १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ७-१० २-दही पृ० २६-३१ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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