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________________ शील की नव बाड़ "होता यह भयंकर भूत है। इसमें स्थूल ब्रह्मचर्य का सीधा भंग है। इस तरह रमनेवाली अपने को और दुनिया को धोखा देते हैं। . ऐसे लोगों की अन्तिम क्रिया बाकी रहती है, तो उसका श्रेय उन्हें नहीं, हालात को है । वे पहले ही मौके पर फिसलनेवाले हैं'। (१९-६-३२) ७ श्रह्मचर्य के पालन के लिए सिर्फ इतना ही काफी नहीं है कि ब्रह्मचारी स्त्री या पुरुष को बुरी नजर से न देखें। लेकिन वह मन से भी विषयों का चिन्तन या भोग न करे । कोपर्य ९४ अपनी पत्नी या दूसरी स्त्री हो, अपना पति हो या दूसरा पुरुष हो किसी के भी विकारमय स्पर्श, या वैसी बातचीत या फिर कोई वैसी ही चेष्टा से भी स्थूल ब्रह्मचर्य टूटता है। यह विकारमय चेष्टा यदि पुरुष पुरुष के बीच ही हो या स्त्री स्त्री के बीच ही हो या दोनों की किसी चीज के लिए हो, तो भी स्थूल ब्रह्मचर्य का भंग होता है । संग न करने में जो ब्रह्मचर्य का आदि और मानते है, नेवारी नहीं हैं.....दूसरे सब भोग भोगते हुए जो पुरुष स्त्री-संग से दूर रहने की इच्छा रखता होगा, या ऐसी कोई स्त्री पुरुष संग से दूर रहना चाहती होगी, उसकी कोशिश बेकार है। कुएं में जानबूझ कर उतर कर पानी से अछूता रहने के प्रयत्न जैसा हो यह प्रयक्ष है। जो स्त्री-पुरुष संग के त्याग को आसान बनाना चाहते हैं, उन्हें उसे उत्तेजना देनेवाली सभी जरूरी चीजें छोड़नी चाहिए। उन्हें जीभ के स्वाद छोड़ने चाहियें, श्रृंगार रस छोड़ना चाहिए। और विलास मात्र छोड़ना चाहिए। मुझे जरा भी शक नहीं कि ऐसे लोगों के लिए ब्रह्मचर्य श्रासान है । (१९-६ ३२) गीता के दूसरे मध्याय में कहा है कि "निराहारी के विषय तक भले ही दब गये, जब तक निराहार जारी रहे। मगर उसका रस नहीं मिटता। वह तो तभी मिटेगा जब पर के यानी सत्य के यानी ब्रह्म के दर्शन हो जायेंगे । "...... इस श्लोक में पूर्ण सत्य कह दिया है। उपवास से लगाकर जितने संयमों की कल्पना की जा सकती है, वे सब ईश्वर की कृपा के बिना बेकार हैं। ब्रह्म का दर्शन यानी ब्रह्म हृदय में निवास करता है, ऐसा अनुभव ज्ञान। यह न हो तब तक रस नहीं मिटता। इसके प्राते ही रस मात्र सूख जाते हैं । ...... यह ज्ञान लगातार प्रयास से ही होता है।......सत्य के दर्शन के अन्त में परमानन्द है । (१६-६-३२) १०-......उपवास करके उलटे सिर लटक कर हाथ सुखाकर, पैर सुखाकर किसी भी तरह विषयों की निवृत्ति करनी ही है५ । (२५-६-३२) ११- शुद्ध प्रेम में शरीर करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु उसका अर्थ यह तो नहीं है कि स्पर्श मात्र अपवित्र होता है। मेरा मेरी माँ पर शुद्ध प्रेम था। जब उसके पांव दर्द करते, तब मैं उन्हें दवाता था उसमें कोई पवित्रता नहीं थी विकारी पदूषित है। यतः मैं ऐसा कहूंगा कि पारीर-स्पर्श के बिना शुद्ध प्रेम है, ऐसा करनेवाले ने युद्ध प्रेम समझा ही नहीं' 1 (२६-५०३७) १२ – ...... मेरा ब्रह्मचर्य पुस्तकीय नहीं है। मैंने तो अपने तथा उन लोगों के लिए जो मेरे कहने पर इस प्रयोग में शामिल हुए हैं, अपने ही नियम बनाए हैं। और अगर मैंने इसके लिए निर्दिष्ट निषेधों का अनुसरण नहीं किया है, तो स्त्रियों को धार्मिक साहित्य में जो सारी बुराई और प्रलोभन का द्वार बताया गया है, उसे मैं इतना भी नहीं मानता। पुरुष ही प्रलोभन देनेवाला और श्राक्रमण करनेवाला है । स्त्री के स्पर्श से वह अपवित्र नहीं होता; बल्कि वह खुद ही उसका स्पर्श करने लायक पवित्र नहीं होता। लेकिन हाल में मेरे मन में संदेह जरूर उठा है कि स्त्री या पुरुष के संपर्क में आने के लिए ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी को किस तरह की मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। मैंने जो मर्यादायें रखी हैं, वे मुझे पर्याप्त नहीं मालूम पड़तीं, लेकिन वे क्या होनी चाहिएँ, यह मैं नहीं जानता । हरिजन सेवक, (२३-७-३८) १ - सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४२ २- वही पृ० ६१ ३- सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४०-४१ ४- वही पृ० ४२-४४ ५-यही पृ० ४५ ...... अमृतवाणी पृ० १५५ - ब्रह्मचर्य (प० भा० ) पृ० १०२, १०३-४ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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