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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ ] मरू-गूर्जर जैन कवि अन्त-गुणवंतह सिरि तिल उ, निलेउ दंसण चारित्तह । अच्चब्भुय वर चरिय, भरिउ मंदिरु तव सत्तह ।। भद्दबाहु पहु सूरि पट्ट उदयाचल दिणयरु । चरम चउद्दस पुव्व धारि. सेवय जण सुहयरु ।। उभियउ हत्थु जिणि सील गुणि, महिम सुरद्द,म देव कुरु । सो थूलिभद्द, संघह जयउ, मयण विडंबणु मेरु गुरु ।।२५ (८६) रत्नशेखर सूरि (१०४) गौतम रास सं० १४१९, थिरउद्दपुर, गाथा ७५ आदि-ओंकार तुम्ह माय वीर, सिरिवन्न महन्तो। हिय कमल झाएवि ध्यावेइ, वीरु जिणवर अरिहन्तो । अणिसु गोयम स्वामि तणौ, गुण संथव रासो । जिण निसणो भो भविय लोय, मणि हरषि उलासो ।।१।। पुहवि पसिद्धो मगहदेस, वर गुम्वर गामि ।। सार सरोवर कूव वावि, वणिक्कण अभिराम् ॥ तहि निविसई वस भूई नांवि, दिय राउ पसिद्धउ । गोयम गुत्त पवित्त वसु, बहु रिद्धि समिद्धउ ॥२॥ अन्त-जयवंतव जिण शासनि राज, परव महोच्छवि मंगल गाज। पहिलो विरधि वधावणी भणहि गुणहि जे गोयम रासौ ॥ प्रष्ट महासिधि नवइनिधि तहि धरि निश्चल करहिं निवासी ॥७४।। चौदहस यह गुणीसइ बरसै थिरउदपुरि गरुवउ मणि हरसं, रास एहु गोयम तणौ रयण सिहर सुरी दिहि कियो चौबिह संघ विविह परं ।। For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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