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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ४७ (५६) जिनपद्मसूरि (सं० १३८६ से १४००) (६९) श्री शत्रुञ्जय चतुविशति स्तवनम् गा० २६ पादि-जग मंडण गुण पवरं, सत्तजय धरणि........रं । सुह सारं भवतार, भयवार-थुणिसु जिणवरि ॥१॥ ना ि........ई, मुरदेवि पुत्तं जणाणंदण। वसह वर लंछण दुरिय, भ... "ण मंडलं ॥२॥ अन्त-तिय लोय भूसण दलिय दूसरगु, विबुह तोसण संगउ । इय माय ताय सरीर लंछण, देह कतिहि संत्थुउ॥ सिरि माणतुग विहार संठिउ, सुप्पइट्ठिउ जिणगणो । जिण पउमसूरि सुरिंद वंदिउ, दिसउ सुक्खु गुरगुल्लुणो २६ प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय जिनपद्मसूरि दे० ज० गु० क. भा० १ पृ. ११ (६०) अज्ञात (७०) श्री स्थूलिभद्र बोली गा० २८ पादि-सुर राय समहरि करवि निज्जिय, चक्कवह हरि हलहरा । पायालि पन्नग सेव मन्नहि, कवण मत्त नरेसरा ।। तस कुसुम सर कोदंड खंडवि, बाण पसरुवि हिडिउ । सिरि पूलिभद्दिण तेम निज्जिउ, जेम किणिवि न निज्जिउ ॥१ मन्त-कोवि निय तरण तषिण सोसाइ, कोवि रंनिहि निवसए । For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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