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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ ] मरू-गूर्जर जैन कवि लीलई चालिउ वीर जिणि, वाम कमगि गिरिन्दु ॥ १ अन्त-ताम सुरवइ ताम सुरवइ, वयण संभंत । सहसच्चिय सुर असुर, सुपसत्थ तित्थु नीरह भरिऊण मणिमय कलश, कुणह न्हवण समकालु वीरह पसरिय पडु पडिरव भरिय, भुवर्णाभतर पूर अप्फालिय तियसेहिं तहि, चउविह मंगलतूर ॥५ प्रतिलिपि-प्रभय जैन ग्रन्थालय (५८) अज्ञात (६८) सर्व जिन कलश गा० ५ (चतुर्विशति जिन कलशः) आदि-जंम्म मज्जणु२ भणउं उसभस्स ।। मजिय संभवमभिणंदणह, सुमइ सुप्पभ* सुपास नाहह ।। ससि सुविहि सीयल जिणह, सिरि सिज्जंस जिण वासुपुज्जह । विमलमण तह धम्म जिण. संनि कुथु अर मल्लि । मुणिसुव्वय नमि नेमि जिणु, पास वीर जिण वल्लि ॥१ अन्त--तयणु गारिण (तयशु गारिण) सब भो भव । अपुव्व वत्याभरण, भूसियंग मणि रंग चंगय प्राण द वाहप्पवह न्हविय, गल्लयल पुलय संगय करहु सव्व तित्थेसरह, मज्जणु मह वह सेउ सिवपुरम्मि तुम्हवि भवइ, जिव लहु रज्ज भिसेउ ॥ ५ * सुपम सुप्पास मिंण प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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