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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० ] पण आदि -- पणमवि सरसइ देवी, सुय रयण विनूसिय नेमि सुरासो, जण निसुणहु सूसिय ॥१॥ अन्त - सिरि जिणवइ गुरु सीमिई, इहु मणहर भासु । नेमि कुमारह रइड, गणि सुमइणि रासु । ५७॥ सासण देवी अबाई, इउ रास दियतह i विग्घू हरउ सिग्घु, संघह गुणवंतह |५८६ | मरू- गूर्जर जैन कवि वि० श्री सुमति गणि की दीक्षा सं १२६० में हुई थी । इनकी सबसे बड़ी रचना 'गणधरसार्धशतक वृहद् वृत्ति' सं० १२६५ की है जिसका परिमाण १२१०५ श्लोकों का है । [१४ वीं १५ वीं शती की लिखित २ प्रतियां, जैसलमेर भंडार] प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ७ अं० १ अन्त - (सं० १२७७) (१३) शाह रयण ( ख० जिन पति सूरि भक्त श्रावक ) (१३) श्री जिनपति सूरि धवल गीत गा० २० सं० १२७८ के लगभग प्रादि- वीर जिरणेसर नमइ सुरेसर, तस पह पर्णामय पय कमले । युगवरं जिनपति सूरि गुण गाइसो, भत्तिभर हरसिहि मनि रमले |१| For Private and Personal Use Only अन दिगंतरे बार सतहोतरे, मास असादि जिण अणसरी ए । मन्न सुर भाणहि सिय दसमी दिवसहि, पहुतउ सूरि अमरापुरी ए ॥१६॥
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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