SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लखमसीह [ १२३ सोलहवीं सदी (१६६) लखमसीह (१९९) शालिभद्र चौपई गा० १०४ सं० १५२७ आदि-प्रथम विनवउ प्रथम विनवउ देवि सरसत्ति । . कासमीरह मुख मडणीय, हंसगमणि कर कमलि वंगिय । गायंती महुर सरे सुकवि, कंत नव नेह रजिय । वीणा पुस्तक धारणीय, सातय सर पयडति । सा सरसति निय रुलीय भरि, जिणह भुवणि गायति ॥१ पहिलउ वीनवउ सारद माय, लघु दीरघ जा आणइ ठाइ । कूड उ अक्खर राखे होइ, तिम करि जिम सलहइ सहकोइ । दियउ दानु धनु वे बउ ठांहि, पुहिहि (भहु?) सहु रहइ कलि माहि । दान सील तप भावन वर उ, भव समुद्र जिम लीला तरउ ॥३ जा अछइ कसमीरह देसि, हंस गमणि सेयं वर वेसि । उर पिहर विजयवंती माल, करि वीणां वर वाइ ताल ।।४ लखमसीह कवि बोलइ एहु, भवियउ निसुण कन्नि सुणेहु । पढत गुणंता नासइ दूरिउ, सालिभद्र वखारणु चरिउ । ५ अन्त- महा विदेहि मरणया ? भव लहि (य), सिद्धि रमणि ते वीरेसइ सही । सालि भद्द जे चरिउ पठंति, भाव भगति जे नरनि सुणंति । हरषि जाई जिणहरि जे देंति, मुगति रमणि फल ते पावति ।।१०४ इति शालिभद्र चतुष्पादिका चरित्र समाप्त । लेखन काल- संवत् १५२७ वर्षे भादवा वदि षष्ठी बुधवासरे लिखितमिदं For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy