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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०८ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरु-गुर्जर जैन कवि गुरु प्रणमीय जय सीयलं सार, दुत्तरु जीव तरय संसार ||१ गरथ तणउ करई परिहारु, सो गुरु जाणे तिहुयणि सारु । बायालीस दोस विसद्ध श्राहारु, सूघउ विहरद्द करइ विचारु ॥२ अन्त - पुष्व भवंतरि सचीया जोइ, पाप सुद्धि सामायक होय । धम्म रई ते प्रक्चिल मत्ति, सामाइक्क सीधउ दमदंत ॥३१ पास जिलेसर तणइ पसाई, विघ्न सवे ते दूरिइ जाई । पंढत्त गुरांत नइ आस, लहई सुखो ते सिद्धि निवासु ॥३२ प्रति० प्रभय० (१४७) समरा (१७६) नेमि चरित रास गा० २८ प्रादि-तोरणि जादव आइलइ, पसूत्रा दीधा दोसू ए । ती कारण प्रभ तजीय रायमइ, नेम चडउ गिरनार रे ।। १ नज सिणगार करि अभिनवा, नेमिकुमर चाल्यंउ परिणिवा | छपन कोड़ि जादव परिवार, हइ गइ संखि न लाभइ पार ॥२ अन्त - असो ग्रमावस केवल नाण, नेमि तणू तु निखार | राजमती सु सु सइ गउ, बावीसय जरणेसर भउ । मगति राणी राजल तणउ योग, पढत गरणंता नासइ रोग । नेमिचरित सूसा नारी सुणइ, पाप (प ) णासइ समरुउ भणइ ॥ २८ प्रति० प्रभय For Private and Personal Use Only टि० समरो दे० जे० गु० क० भा० ३, पृ० १४०२
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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