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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९४ ] www.kobatirth.org मन्त - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रादि - चउदह पूरब माहि जो सारु, पहिलउ रिन समरउ नवकारु । भणिसु धम्माधम्म विचारु, जोणइ जीवु तरइ संसारु ।। १ धम्मु धम्मु पभणइ सहुँ कोइ, " धम्म करइ पुण विरलउ कोई । धम्म तणउ तिणि बूझिष्ट सारु, जिह चिति क्रोधु नहीं अहंकारु ॥२ • अज्जव मध्वगुण संजत्त, सवे वार जीव निर्मल चित्त । कोपालि कोवि न दहइ, इणइ करमि मेणूतण लहइ ।।१५ अन्त मरू- गूर्जर जैन कवि (१२८) प्रज्ञात ( १४९) धर्माधर्म विचार गा० १६ तपु तपइ भावा भावंति, शुद्धि चित्ति जें दान दीयंति । क्रोध मान माया परिहरउ, इणि परि स्वर्ग लोकि तंचरउ ॥ १६ • प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय प्रादि- नंदीसरवर दीप मकारि, सासतां तीरत्थ जुहारि । ' (१२६) अज्ञात (१५०) नंदीसरवर चडफर्ड, गा० ११. जिहिं अच्छय तिहि आवागमण, सतजोयण' देखय एक भवण ॥। १ इसा भुवनतिहि बावन्न एह, जोयण बहुत्तरि बावन्न ऊंचा नेय । पहुल पणि जोयण पंचास, ते बंदी तर पूरउ श्रास ॥२ For Private and Personal Use Only सरवालाइ हिव लेखउ जोइ बार चउक अठतालिस होइ । 1 चिहुँ अंजणगिरि तीरथ व्यारि, इणि परि बावन्न गिणी जुहारि ॥१०
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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