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________________ जॉर्ज कार्लिन का संदेश हमारे समय का विरोधाभास यह है कि हमने बिल्डिंगें तो बहुत ऊंची-ऊंची बना ली हैं पर हमारी मानसिकता क्षुद्र हो गयी है। लंबे-चौडे राजमार्गों ने शहरों को जोड़ दिया है पर दृष्टिकोण छोटा हो गया है। हम खर्च अधिक करते हैं पर हमारे पास होता कम है। हम खरीदते ज्यादा हैं पर उससे संतुष्टि कम पाते हैं। हमारे घर बड़े हैं पर परिवार छोटे हो गए हैं। हमने बहुत सुविधाएँ जुटा ली हैं पर समय कम पड़ने लगा है। हमारे विश्वविद्यालय ढेरों विषयों की डिग्रियां बांटते हैं पर समझ कोई स्कूल नहीं सिखाता। तर्क-वितर्क ज्यादा होने लगा है पर निर्णय कम सुनाई देते हैं। आसपास विशेषज्ञों की भरमार है पर समस्याएं अपार हैं। दवाईयों से शेल्फ भरा हुआ है पर तंदरुस्ती की डिबिया खाली है। हम पीते बहुत हैं, धुंआ उड़ाते रहते हैं, पैसा पानी में बहाते हैं, हंसने में शर्माते हैं, गाडी तेज़ चलाते हैं, जल्दी नाराज़ हो जाते हैं, देर तक जागते हैं, थके-मांदे उठते हैं, पढ़ते कम हैं, टी वी ज्यादा देखते हैं, प्रार्थना तो न के बराबर करते हैं। हमने संपत्ति को कई गुना बढ़ा लिया पर अपनी कीमत घटा दी। हम हमेशा बोलते रहे, प्यार करना भूलते गए, नफरत की जुबाँ सीख ली। हमने जीवन-यापन करना सीखा, जिंदगी जीना नहीं। अपने जीवन में हम साल जोड़ते गए पर उन सालों में जिंदगी कहीं खो गयी। हम चाँद पर टहलकदमी करके वापस आ गए लेकिन सामनेवाले घर में आए नए पड़ोसी से मिलने की फुर्सत हमें नहीं मिली। हम सौरमंडल के पार जाने का सोच रहे हैं पर आत्ममंडल का हमें कुछ पता ही नहीं। हम बड़ी बात करते हैं, बेहतर बात नहीं। हम वायु को स्वच्छ करना चाहते हैं पर आत्मा को मलिन कर रहे हैं। हमने परमाणु को जीत लिया, पूर्वग्रह से हार बैठे। हमने लिखा बहुत, सीखा कम। योजनाएं बनाई बड़ी-बड़ी, काम कुछ किया नहीं। आपाधापी में लगे रहे, सब करना भूल गए। कम्प्युटर बनाये ऐसे जो काम करें हमारे लिए, लेकिन उन्होंने हमसे हमारी दोस्तियाँ छीन ली। हम खाते हैं फास्ट फूड लेकिन पचाते सुस्ती से हैं। काया बड़ी है पर चरित्र छोटे हो गए हैं। मुनाफा आसमान छू रहा है पर रिश्ते-नाते सिकुड़ते जा रहे हैं। परिवार में आय और तलाक़ दुगने होने लगे हैं। घर शानदार हैं, पर टूटे हए। चुटकी में सैर-सपाटा होता है, बच्चे की लंगोट को धोने की ज़रूरत नहीं है, नैतिकता को कौन पूछता है? रिश्ते रात भर के होते हैं, देह डेढ़ गुनी होती जा रही है, गोलियां सुस्ती और निराशा दूर भगाती हैं - सब भुला देती हैं - सब 94
SR No.034108
Book TitleZen Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNishant Mishr
PublisherNishant Mishr
Publication Year
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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