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________________ फूल और पत्थर अपनी जड़ों के पास मिटटी में आधे धंसे हुए पत्थर से फूल ने हिकारत से कहा - "तुम कितने कठोर हो। इतनी बारिश होने के बाद तो तुम गलकर महीन हो जाते और फ़िर तुममें भी बीज पनप सकते थे। लेकिन तुम ठहरे पत्थर के पत्थर! अपने इर्द-गिर्द और रेत ओढ़कर मोटे होते जा रहे हो। हमें पानी देनेवाली धारा का रास्ता भी रोके बैठे हो। आख़िर तुम्हारा यहाँ क्या काम है?" पत्थर ने कुछ नहीं कहा। ऊपर आसमान में बादलों की आवाजाही चलती रही। सूरज रोज़ धरती को नापता रहा और तांबई चंद्रमा अपने मुहांसों को कभी घटाता, कभी बढाता। पत्थर इनको देखता रहता था, उसे शायद ही कभी नींद आई हो। दूसरी ओर, फूल, अपनी पंखुड़ियों की चादर तानकर मस्त सो रहता... और ऐसे में पत्थर ने उसे जवाब दिया... ___ "मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि तुम्हारी जड़ों ने मुझे अपना बना लिया है। मैं यहाँ इसलिए नहीं हूँ कि मुझे कुछ चाहिए, बल्कि इसलिए हूँ क्योंकि मैं उस धरती का एक अंग हूँ जिसका काम तुम्हारे तने को हवा और बारिश से बचाना है। मेरे प्यारे फूल, कुछ भी चिरंतन नहीं है, मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि मेरी खुरदरी त्वचा और तुम्हारे पैरों में एक जुड़ाव है, प्रेम का बंधन है। तुम इसे तभी महसूस करोगे यदि नियति हम दोनों को कभी एक दूसरे से दूर कर दे।" तारे चंद्रमा का पीछा करते-करते आसमान के एक कोने में गिर गए। नई सुबह के नए सूरज ने क्षितिज के मुख पर गर्म चुम्बन देकर दुनिया को जगाया। फूल अपनी खूबसूरत पंखुड़ियों को खोलते हुए जाग उठा और पत्थर से बोला - "सुप्रभात! मैंने रात एक सपना देखा कि तुम मेरे लिए गीत गा रहे थे। मैं भी कैसा बेवकूफ हूँ, है न!?" पत्थर ने कुछ नहीं कहा। 30
SR No.034108
Book TitleZen Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNishant Mishr
PublisherNishant Mishr
Publication Year
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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