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________________ द्वार पर सत्य बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक दिन यह कथा सुनाई: किसी नगर में एक व्यापारी अपने पाँच वर्षीय पुत्र के साथ अकेले रहता था। व्यापारी की पत्नी का देहांत हो चुका था। वह अपने पुत्र से अत्यन्त प्रेम करता था। एक बार जब वह व्यापार के काम से किसी दूसरे नगर को गया हुआ था तब उसके नगर पर डाकुओं ने धावा बोला। डाकुओं ने पूरे नगर में आग लगा दी और व्यापारी के बेटे को अपने साथ ले गए। व्यापारी ने लौटने पर पूरे नगर को नष्ट पाया। अपने पुत्र की खोज में वह पागल सा हो गया। एक बालक के जले हुए शव को अपना पुत्र समझ कर वह घोर विलाप कर रोता रहा। संयत होने पर उसने बालक का अन्तिम संस्कार किया और उसकी अस्थियों को एक छोटे से सुंदर डिब्बे में भरकर सदा के लिए अपने पास रख लिया। कुछ समय बाद व्यापारी का पुत्र डाकुओं के चंगुल से भाग निकला और उसने अपने घर का रास्ता ढूंढ लिया। अपने पिता के नए भवन में आधी रात को आकर उसने घर का द्वार खटखटाया। व्यापारी अभी भी शोक-संतप्त था। उसने पूछा - "कौन है?" पुत्र ने उत्तर दिया - "मैं वापस आ गया हूँ पिताजी, दरवाजा खोलिए!" अपनी विचित्र मनोदशा में तो व्यापारी अपने पुत्र को मृत मानकर उसका अन्तिम संस्कार कर चुका था। उसे लगा कि कोई दूसरा लड़का उसका मजाक उडाने और उसे परेशान करने के लिए आया है। वह चिल्लाया - "तुम मेरे पुत्र नहीं हो, वापस चले जाओ!" भीतर व्यापारी रो रहा था और बाहर उसका पुत्र रो रहा था। व्यापारी ने द्वार नहीं खोला और उसका पुत्र वहां से चला गया। पिता और पुत्र ने एक दूसरे को फ़िर कभी नहीं देखा। कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा - "कभी-कभी तुम असत्य को इस प्रकार सत्य मान बैठते हो कि जब कभी सत्य तुम्हारे सामने साक्षात् उपस्थित होकर तुम्हारा द्वार खटखटाता है तुम द्वार नहीं खोलते" 27
SR No.034108
Book TitleZen Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNishant Mishr
PublisherNishant Mishr
Publication Year
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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