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________________ अनु० ११ ] व्यानीतराणि सावधानि शिष्ट- निन्दायुक्त कर्म-भले ही वे शिष्ट कृतान्यपि । यान्यसाकमाचा पुरुषोंके किये हुए हों-तुझे नहीं : करने चाहिये । हम आचार्यलोगोंके र्याणां सुचरितानि शोभनचरि-भी जो सुचरित-शुभ चरित अर्थात् शाखसे अविरुद्ध कर्म हैं उन्हींकी तान्याम्नायाद्यविरुद्धानि तान्येव . " तुझे उपासना करनी चाहिये अदृष्ट त्वयोपास्यान्यदृष्टार्थान्यनुष्ठेया- फलके लिये उन्हींका अनुष्ठान करना नि, नियमेन कर्तव्यानीति या चाहिये अर्थात् तेरे लिये वे ही " : नियमसे कर्तव्य हैं ॥ २ ॥-दूसरे वत् ॥२॥ नो इतराणि विपरी- नहीं, अर्थात् उनसे विपरीत कर्म तान्याचार्यकृतान्यपि । आचार्यके किये हुए भी कर्तव्य नहीं हैं। ) ये के च विशेपिता आचार्य- जो कोई भी आचार्यत्व आदि धर्मोके वादिधर्मरसदस्मत्तः श्रेयांसः कारण विशिष्ट हैं, अर्थात् हमसे श्रेष्ठ | बड़े हैं तथा वे ब्राह्मण भी हैं-क्षत्रिय प्रशस्यतरास्ते च ब्राह्मणा न आदि नहीं हैं, उनका आसनादिके - क्षत्रियादयस्तेपामासनेनासनदा- द्वारा अर्थात् उन्हें आसनादि देकर तुझे प्रश्वास-प्रश्वासका अर्थ है नादिना त्वया प्रश्वसितव्यम् । आश्वासन यानी श्रमापहरण करना प्रश्वसनं प्रश्वासः श्रमापनयः । चाहिये । तात्पर्य यह है कि तुझे तेपाश्रमस्त्वयापनेतव्य इत्यर्थः । उनका श्रम निवृत्त करना चाहिये । तथा किसी गोष्ठी (सभा) के लिये तेषां चासने गोष्ठीनिमित्ते समु उन्हें उच्चासन प्राप्त होनेपर तुझे दिते तेषु न प्रश्वसितव्यं प्रश्वा- प्रश्वास-दीर्घनिःश्वास भी नहीं छोड़ना चाहिये; तुझे केवल उनके सोऽपि न कर्तव्यः केवलं तदुक्त | कथनका सार ग्रहण करनेवाला सारग्राहिणा भवितव्यम् । होना चाहिये ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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