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________________ तैत्तिरीयोपनिषद् [ वल्ली १ यविपयत्वादननुष्ठानं प्रमादः स न कर्तव्यः । अनुष्ठातव्य एव । धर्म इति यावत् । एवं कुशला- | - दात्मरक्षार्थात्कर्मणो न प्रमदि 1 प्रमदितव्यम् । धर्मशब्दस्यानुष्ठे- | करना चाहिये । 'धर्म' शब्द अनुष्ठेय कर्मविशेषका वाचक होनेसे उसका अनुष्टान न करना ही प्रमाद है; धर्मका अनुष्ठान करना ही चाहिये। ॥ सो नहीं करना चाहिये । अर्थात् इसी प्रकार कुशल - आत्मरक्षा में उपयोगी कर्मोंसे प्रमाद न करे । 'भूति' वैभवको कहते हैं, उस वैभव के लिये होनेवाले मंगलयुक्त कर्मोसे प्रमाद न करे । खाध्याय और प्रवचनसे प्रमाद न करे स्वाध्याय अध्ययन है। और प्रवचन अध्यापन, उन दोनोंसे प्रमाद न करे अर्थात् उनका नियमसे आचरण करता रहे ॥ १ ॥ इसी प्रकार देवकार्य और पितृकार्यों से भी तव्यम् । भूतित्रिंभूतिस्तस्यै भृत्यै भूत्यर्थान्मङ्गलयुक्तात्कर्मणो न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवच 1 नाभ्यां न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायोsध्ययनं प्रवचनमध्यापनं ताभ्यां न प्रमदितव्यम् । ते हि नियमेन कर्तव्ये इत्यर्थः ॥ १ ॥ देवपितृकार्याभ्यां तथा न - प्रमदितव्यम् । दैवपित्र्ये । प्रमाद न करे, अर्थात् देवता और पितृसम्बन्धी कर्म अवश्य करने कर्मणी कर्तव्ये | ' चाहिये । मातृदेवो माता देवो यस्य स मातृदेव - माता है देव जिसका त्वं मातृदेवो भव स्याः । एवं | वह तू मातृदेव हो । इसी प्रकार पितृदेव आचार्यदेवो भव । पितृदेव हो, आचार्यदेव हो, अतिथिदेवतावदुपास्या एत इत्यर्थः । चाहिये ] । तात्पर्य यह है कि ये देव हो ] [ इनका अर्थ समझना यान्यपि चान्यान्यनवद्यान्यनि - | सब देवताके समान उपासना न्दितानि शिष्टाचार लक्षणानि करनेयोग्य हैं । इसके सिवा और कर्माणि तानि सेवितव्यानि | भी जो अनवद्य - अनिन्द्य यानी शिष्टाचाररूप कर्म हैं तेरे लिये वे ही कर्तव्यानि त्वया । नो न कर्त - | सेवनीय यानी कर्त्तव्य हैं । अन्य
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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