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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वस्ली२
मयस्तदन्तर्सनोमयो विज्ञानमय उसका अन्तर्वर्ती मनोमय और फिर
विज्ञानमय है। इस प्रकार आत्माका इति विज्ञानगुहायां प्रवेशितरतत्र
विज्ञानगुहामें प्रवेश करा दिया गया चानन्दमयो विशिष्ट आत्मा है, और वहाँ आनन्दमय ऐसे विशिष्ट प्रदर्शितः।
आत्माको प्रदर्शित किया गया है। . अतः परमानन्दमयलिङ्गाधि
र इसके आगे आनन्दमय-इस
लिङ्गके ज्ञानद्वारा आनन्दके उत्कर्षगमद्वारेणानन्दविवृद्धयवसान का अवसानभूत आत्मा जो सम्पूर्ण आत्मा ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा सर्व-: विकल्पका आश्रयभूत एवं निर्विकल्प विकल्या
ब्रह्म है तथा [आनन्दमय कोशकी]
पुच्छ प्रतिष्ठा है, वह इस गुहामें ही मेव गुहायामधिगन्तव्य इति अनुभव किये जाने योग्य हैतत्प्रवेशः प्रकल्प्यते । न हन्य- इसलिये उसके प्रवेशकी कल्पना
की गयी है । निर्विशेप होनेके कारण - त्रोपलभ्यते ब्रह्म निर्चिशेपत्त्वात् ।
ब्रह्म [बुद्धिरूप गुहाके सिवा और विशेषसंबन्धो ह्युपलब्धिहेतु
कहीं उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि
विशेपका सम्बन्ध ही उपलब्धिमें हेतु दृष्टः, यथा राहोश्चन्द्रार्कविशिष्ट
या राहावन्द्राकावाशष्ट- देखा गया है, जिस प्रकार कि राहुसंबन्धः । एवमन्तःकरणगुहात्म
की उपलब्धिमें चन्द्रमा अथवा सूर्य
रूप विशेषका सम्बन्ध । इस प्रकार संवन्धो ब्रह्मण उपलब्धिहेतुः । अन्तःकरणरूप गुहा और आत्मासानकपोदवभासात्मकत्वाजाका सम्बन्ध ही ब्रह्मकी उपलब्धिका
हेतु है, क्योंकि अन्तःकरण उसका करणस्य ।
| समीपवर्ती और प्रकाशखरूप है। * जिस प्रकार अन्धकार और प्रकाश दोनों ही जड हैं, तथापि प्रकाश अन्धकाररूप आवरणको दूर करने में समर्थ है, इसी प्रकार यद्यपि अज्ञान आर अन्तःकरण दोनों ही समानरूपसे जड हैं तो भी प्रत्यय (विभिन्न प्रतीतियोक) रूपमें परिणत हुआ अन्तःकरण अज्ञानका नाश करनेमें समर्थ हैं और इस प्रकार वह आत्माका प्रकाशक (ज्ञान करानेवाला) है। इसी बातको आगक भाष्यसे स्पष्ट करते हैं।