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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
वानुप्राविशत्' इति श्रुतेः । कोई गति दिखायी नहीं देती। श्रुतिश्च नोऽतीन्द्रियविषये विज्ञा- | हमारे (मीमांसकोंके ) सिद्धान्तानोत्पत्तौ निमित्तम् । न चासा
| नुसार इन्द्रियातीत विपयोंका ज्ञान
पता होनेमें श्रुति ही कारण है। किन्तु द्वाक्याद्यनवतामपि विज्ञानमु- इस वाक्यसे बहुत यत्न करनेपर भी त्पद्यते । हन्त तयनर्थकत्वादपो- | किसी प्रकारका ज्ञान उत्पन्न नहीं ह्यमेतद्वाक्यम् 'तत्सृष्ट्वा तदेवानु
होता । अतः खेद है कि 'तत्सृष्ट्या
तदेवानुप्राविशत्' यह वाक्य अर्थशून्य प्राविशत्' इति ।
होनेके कारण त्यागने ही योग्य है ! न, अन्यार्थत्वात् । किमर्थ- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है, मस्थाने चर्चा | प्रकतो ह्यन्यो क्योंकि इस वाक्यका अर्थ अन्य ही
है। इस प्रकारअप्रासङ्गिक चर्चा क्यों विवक्षितोऽस्य वाक्यस्यार्थोऽस्ति करते हो? इस प्रसंगमें इस वाक्य•स सर्तव्यः । "ब्रह्मविदामोति को और ही अर्थ कहना अभीष्ट है।
| उसीको स्मरण करना चाहिये। "ब्रह्मपरम्" (तै० उ० २।१।१)
| वेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता है" "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" (तै० | "ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है"
"जो उसे बुद्धिरूप गुहामें छिपा उ० २।१।१) “यो वेद
हुआ जानता है" इत्यादि वाक्योंद्वारा निहितं गुहायाम्" (तै० उ० | जिसका निरूपण किया गया है
उस ब्रह्मका ही विज्ञान यहाँ बतलाना २।१।१) इति तद्विज्ञानं
अभीष्ट है और उसीका यहाँ प्रसङ्ग च विवक्षितं प्रकृतं च तत् । भी है । ब्रह्मके खरूपका ज्ञान प्राप्त
करनेके लिये ही आकाशसे लेकर ब्रह्मस्वरूपानुगमाय चाकाशाद्य
अन्नमयकोशपर्यन्त सम्पूर्ण कार्यनमयान्तं कार्य प्रदर्शितं ब्रह्मा- वर्ग दिखलाया गया है तथा ब्रह्मा
नुभवका प्रसङ्ग भी चल ही रहा नुगमचारब्धः। तत्रान्नमयादा
नयादा है। उसमें अन्नमय आत्मासे भिन्न मनोज्योऽन्तर आत्मा प्राण- दूसरा अन्तरात्मा प्राणमय है,