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________________ दद तैत्तिरीयोपनिपद् [वल्ली२ तस्यैवमविधयानाप्तबलस्व- जिस प्रकार प्रकृत (दशम) संख्याको पूर्ण करनेवाला अपना-आप रूपस्य प्रकृतसंख्यापूरणस्यात्म अविद्यावश अप्राप्त रहता है और फिर नोऽविद्ययानातस्य सतः केन-किसीके द्वारा स्मरण करा दिये जानेचित्स्मारितस्य पुनस्तस्यैव वि- पर विद्याद्वारा उसकी प्राप्ति हो जाती । है उसी प्रकार अविद्यावश जिसके घयाप्तियथा तथा श्रुत्युपदिष्टस्य ब्रह्मखरूपकी उपलब्धि नहीं होती सर्वात्मन्नह्मण आत्मत्वदर्शनेन उस सबके आत्मभूत श्रुत्युपदिष्ट । ब्रह्मकी आत्मदर्शनरूप विद्याके द्वारा विद्यया तदाप्तिरुपपद्यत एव । 'प्राप्ति होनी उचित ही है। ब्रह्मविदामोति परमिति वाक्यं' 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' यह वाक्य उत्तरग्रन्थाव- सूत्रभूतम् । सर्वस्य मूत्रभूत है । जो सम्पूर्ण वल्लीके नरणिका वल्ल्यर्थस्य ब्रह्म __ : अर्थका विषय है, जिसका 'ब्रह्मविदा जल । नोति परम्' इस वाक्यद्वारा ज्ञातव्यविदामोति परमित्यनेन वाक्येन । रूपसे सूत्रतः उल्लेख किया गया वेद्यतया सूत्रितस्य ब्रह्मणोनि ! है, उस ब्रह्मके ऐसे लक्षणका न जिसके विशेप रूपका निश्चय नहीं र्धारितवरूपविशेषस्य सर्वतो किया गया है और जो सम्पूर्ण व्यावृत्तस्वरूपविशेषसमर्पणमस ! वस्तुओसे व्यावृत्त खरूपविशेपका | ज्ञान कराने में समर्थ है-वर्णन करते र्थस्य लक्षणस्याभिधानेन स्वरूप- हुए खरूपका निश्चय करानेके लिये निर्धारणायाविशेषेण चोक्तवेद तथा जिसके ज्ञानका सामान्यरूपसे २ वर्णन कर दिया गया है उस आगे नस्य ब्रह्मणो वक्ष्यमाणलक्षणस्य । कहे जानेवाले लक्षणोंसे युक्त ब्रह्मको पुरुष उधर आ निकला । उसने सब वृत्तान्त जानकर उन्हे एक लाइनमें खड़ा किया और हाथमें डण्डा लेकर एक, दो, तीन-इस प्रकार गिनते हुए हरएकके एक-एक डण्डा लगाकर उन्हें दश होनेका निश्चय करा दिया और यह भी दिखला दिया कि वह दशवाँ पुरुष स्वयं गिननेवाला ही था जो दूसरोंमें आसक्तचित्त रहनेके कारण अपनेको भूले हुए था।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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